''महिला मुक्ति एवं भगत सिंह छात्र मोर्चा के कार्यभार ''पर एक विशेष सभा:-
पिछले 18 जनवरी को भगत सिंह
छात्र मोर्चा ने ''महिला मुक्ति एवं भगत सिंह छात्र मोर्चा के कार्यभार
''पर एक विशेष सभा संपन्न की जिसमे 5 छात्राए और 8 छात्र शामिल थे।
जिन्होंने अपनी बातों को हाल ही में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के खिलाफ
हुए प्रदर्शन एवं प्रदर्शनकारियों को सलाम! करते हुए शुरू की और कहा की
पूरी तरह से अपने बाजारवादी चरित्र के मद्देनजर मिडिया जानबुझकर हाईलाईट
किया और बेचा और पिछले कुछ मुद्दों को दबाया गया।
इन प्रदर्शनों को जनांदोलन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए क्योकि ये एक सामंती मानसिकता है एवं मध्य वर्ग के लोग हैं जो तभी आवाज़ उठाते हैं जब बड़ी जाति के ,प्रभुत्व वाले लोंगो के साथ कुछ होता हैं या जब मीडियां हल्ला मचाती हैं।
गुजरात में मुसलमानों के साथ ,कश्मीर में एवं मणिपुर में सेना के द्वारा ,और खैरलांजी ,मिर्चापुर में दलित महिला एवं उसकी बेटी का रेप कर उन्हें जिन्दा जला दिया गया। आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी के गुप्तांगो में पत्थर डाले जाते हैं और उस एस .पी . को पुरष्कृत किया जाता हैं तब क्यों नहीं आवाज़ उठाते हैं ?
यह पूंजीवादी नहीं बल्कि सामंतवादी एवं ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक मानसिकता हैं ये कोई नई बात नहीं हैं यहाँ की यह संस्कृति हैं।हां यह जरूर हुआ हैं की साम्राज्यवादी कुड़ा-करकट की वजह से कुंठा और बढ़ी है।और यह जनांदोलन तभी हो सकता हैं , वास्तव में महिला मुक्ति की लड़ाई तभी लड़ी जा सकती है जब उन सभी दलित ,आदिवासी ,कश्मीर ,मणिपुर के लिए प्रदर्शन किया जाए और उनका नेतृत्व निचले तबकों एवं श्रमिक वर्ग की महिलाओ के हाथों में हो। उदहारण स्वरुप हम देख सकते हैं बिहार के कुछ क्षेत्रो में जहां इस तरह के संघर्ष हुए हैं वहां ऊची जाति के एवं सामंतीं मानसिकता के लोगों को इस तरह के कृत्य करने से पहले हज़ार बार सोचना पड़ता है।
महिलाओं की इस दशा की जड़ को तलासने के लिए इतिहास में झाँका गया तो पाया गया कि महिलाओं की स्तिथि पहले से ऐसी नहीं रही है।आदिम समय में महिला और पुरूष दोनों समाज के सामान रूप से अंग होते थे और शिकार करते थे। सामूहिक सादियाँ होती थी मतृसत्तात्मक परिवार ,वंश चलते थे। सभी कार्य साथ करने के अलावां बच्चा पैदा करने पर उसे ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता था। वही परिवार की मुखिया भी होती थी।लेकिन एक देश ,काल ,परिस्थिति में जब कबीलों के बीच युद्ध होते थे तब महिलाओ को बच्चा पैदा होने वाले समय में घर पर ही रहने दिया जाता था। जिससे की वह वहीं उसके आस-पास रहकर खेती करना सिख लिया और खेती का अविष्कार उन्होंने ही किया।
पुरूष कबीलों के युद्ध से कुछ लाता एवं शिकार ,पशुपालन ,खेती से अधिक होने लगा तो उसे लगने लगा कि लाता मै हूँ और मालिक कोई और होता है। तभी से महिलाओं की पहली गुलामी पुरूषों द्वारा शुरू हुई।
फिर पुरूषों द्वारा एकं विवाही प्रथा चालू की गई जिससे अपने बच्चे की पहचान कर उसे सम्पति का वारिश बनाया। इस प्रकार पूरी व्यवस्था ही पलट गई और पितृसत्ता का उद्भव हुआ। इसी प्रकार समाज क्रमवार आगे बढता रहा गुलामी-प्रथा ,सामंती व्यवस्था आदि .और इस व्यवस्था को टिकाये रखने के लिए एवं मजबूत बनाने के लिए धर्म ग्रंथो का निर्माण किया गया जिसमे इश्वरीय सत्ता द्वारा वैधानिकता प्रदान किया गया। भारत में विशेष ब्रम्हाणवादी संस्कृति द्वारा।
तमाम चर्चा विश्लेषण के बाद पाया गया की महिला -पुरूष के बीच असमानता का मुख्य कारण सम्पति पर सामान अधिकार एवं उत्पादन में सामान भागीदारी न होना। सामंतवादी ,ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था ,संस्कृति एवं मानसिकता जिसको भारतीय राज्य बनाए रखना चाहता है जिसका चरित्र अर्ध-सामंती एवं अर्ध-औपनिवेशिक है इसलिए स्त्री की लड़ाई किसी पुरूष से नहीं है बल्कि मिली-जुली लड़ाई राज्य व्यवस्था से है जिसको उखाड़े बिना मुक्ति संभव नहीं है ये किसी क़ानून बना देने या अपराधी को फांसी दे देने से नहीं होगा।
ये तो शासक को बचने का सबसे आसान तरीका है।
ऐसे में पहला कार्यभार यह है कि जितने भी शोषित वर्ग है (महिला ,अल्पसंख्यक ,मजदूर ,किसान ,दलित ,आदिवासी ,एवं राष्ट्रीयताए आदि ) अपने जनवादी अधिकारों के लिए संगठित होकर संघर्ष करे। जो की नव-जनवादी क्रान्ति के जरिये ही किया जा सकता है। वास्तव में सभी की मुक्ति तभी संभव है जब समाजवाद आये।
इसीलिए भगत सिंह छात्र मोर्चा सभी छात्र-छात्राओं ,बुद्धिजीवियों एवं शोषित वर्गों से अपील करता है संगठित हो और संघर्ष को तेज करें !
इन प्रदर्शनों को जनांदोलन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए क्योकि ये एक सामंती मानसिकता है एवं मध्य वर्ग के लोग हैं जो तभी आवाज़ उठाते हैं जब बड़ी जाति के ,प्रभुत्व वाले लोंगो के साथ कुछ होता हैं या जब मीडियां हल्ला मचाती हैं।
गुजरात में मुसलमानों के साथ ,कश्मीर में एवं मणिपुर में सेना के द्वारा ,और खैरलांजी ,मिर्चापुर में दलित महिला एवं उसकी बेटी का रेप कर उन्हें जिन्दा जला दिया गया। आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी के गुप्तांगो में पत्थर डाले जाते हैं और उस एस .पी . को पुरष्कृत किया जाता हैं तब क्यों नहीं आवाज़ उठाते हैं ?
यह पूंजीवादी नहीं बल्कि सामंतवादी एवं ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक मानसिकता हैं ये कोई नई बात नहीं हैं यहाँ की यह संस्कृति हैं।हां यह जरूर हुआ हैं की साम्राज्यवादी कुड़ा-करकट की वजह से कुंठा और बढ़ी है।और यह जनांदोलन तभी हो सकता हैं , वास्तव में महिला मुक्ति की लड़ाई तभी लड़ी जा सकती है जब उन सभी दलित ,आदिवासी ,कश्मीर ,मणिपुर के लिए प्रदर्शन किया जाए और उनका नेतृत्व निचले तबकों एवं श्रमिक वर्ग की महिलाओ के हाथों में हो। उदहारण स्वरुप हम देख सकते हैं बिहार के कुछ क्षेत्रो में जहां इस तरह के संघर्ष हुए हैं वहां ऊची जाति के एवं सामंतीं मानसिकता के लोगों को इस तरह के कृत्य करने से पहले हज़ार बार सोचना पड़ता है।
महिलाओं की इस दशा की जड़ को तलासने के लिए इतिहास में झाँका गया तो पाया गया कि महिलाओं की स्तिथि पहले से ऐसी नहीं रही है।आदिम समय में महिला और पुरूष दोनों समाज के सामान रूप से अंग होते थे और शिकार करते थे। सामूहिक सादियाँ होती थी मतृसत्तात्मक परिवार ,वंश चलते थे। सभी कार्य साथ करने के अलावां बच्चा पैदा करने पर उसे ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता था। वही परिवार की मुखिया भी होती थी।लेकिन एक देश ,काल ,परिस्थिति में जब कबीलों के बीच युद्ध होते थे तब महिलाओ को बच्चा पैदा होने वाले समय में घर पर ही रहने दिया जाता था। जिससे की वह वहीं उसके आस-पास रहकर खेती करना सिख लिया और खेती का अविष्कार उन्होंने ही किया।
पुरूष कबीलों के युद्ध से कुछ लाता एवं शिकार ,पशुपालन ,खेती से अधिक होने लगा तो उसे लगने लगा कि लाता मै हूँ और मालिक कोई और होता है। तभी से महिलाओं की पहली गुलामी पुरूषों द्वारा शुरू हुई।
फिर पुरूषों द्वारा एकं विवाही प्रथा चालू की गई जिससे अपने बच्चे की पहचान कर उसे सम्पति का वारिश बनाया। इस प्रकार पूरी व्यवस्था ही पलट गई और पितृसत्ता का उद्भव हुआ। इसी प्रकार समाज क्रमवार आगे बढता रहा गुलामी-प्रथा ,सामंती व्यवस्था आदि .और इस व्यवस्था को टिकाये रखने के लिए एवं मजबूत बनाने के लिए धर्म ग्रंथो का निर्माण किया गया जिसमे इश्वरीय सत्ता द्वारा वैधानिकता प्रदान किया गया। भारत में विशेष ब्रम्हाणवादी संस्कृति द्वारा।
तमाम चर्चा विश्लेषण के बाद पाया गया की महिला -पुरूष के बीच असमानता का मुख्य कारण सम्पति पर सामान अधिकार एवं उत्पादन में सामान भागीदारी न होना। सामंतवादी ,ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था ,संस्कृति एवं मानसिकता जिसको भारतीय राज्य बनाए रखना चाहता है जिसका चरित्र अर्ध-सामंती एवं अर्ध-औपनिवेशिक है इसलिए स्त्री की लड़ाई किसी पुरूष से नहीं है बल्कि मिली-जुली लड़ाई राज्य व्यवस्था से है जिसको उखाड़े बिना मुक्ति संभव नहीं है ये किसी क़ानून बना देने या अपराधी को फांसी दे देने से नहीं होगा।
ये तो शासक को बचने का सबसे आसान तरीका है।
ऐसे में पहला कार्यभार यह है कि जितने भी शोषित वर्ग है (महिला ,अल्पसंख्यक ,मजदूर ,किसान ,दलित ,आदिवासी ,एवं राष्ट्रीयताए आदि ) अपने जनवादी अधिकारों के लिए संगठित होकर संघर्ष करे। जो की नव-जनवादी क्रान्ति के जरिये ही किया जा सकता है। वास्तव में सभी की मुक्ति तभी संभव है जब समाजवाद आये।
इसीलिए भगत सिंह छात्र मोर्चा सभी छात्र-छात्राओं ,बुद्धिजीवियों एवं शोषित वर्गों से अपील करता है संगठित हो और संघर्ष को तेज करें !
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