शनिवार, 9 नवंबर 2013

क्रन्तिकारी कवि धूमिल के ७७ वें जन्म-दिवस पर उनकी दो कविताएं |

रोटी और संसद           
धूमिल
जन्म: 09 नवंबर 1936
निधन: 10 फरवरी 1975
                                               

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है। 

धूमिल की अन्तिम कविता

शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।

लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

हंस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव को भावभीनी श्रद्धांजली !

हिंदी साहित्य के प्रख्यात साहित्यकार , हंस  पत्रिका के संपादक तथा हिंदी साहित्य के स्तम्भ माने जाने वाले राजेंद्र यादव जी का गत सोमवार  निधन हो गया । 
मशाल सांस्कृतिक मंच उनको श्रद्धांजली  अर्पित करता है ।  


राजेंद्र यादव से हमारी उम्मीदें हमेशा बनी रहीं: वरवर राव



राजेंद्र यादव को क्रांतिकारी कवि वरवर राव की श्रद्धांजली

लगभग 30 साल से चले आ रहे हमारे बीच के संवाद को राजेंद्र यादव ने मेरे नाम एक लंबा पत्र लिखकर हमेशा के लिए बंद कर दिया। मैंने उन्हें जवाब दिया था और पिछले दिनों हुए विवाद और बहस में अपने दो पत्रों से अपनी अवस्थिति को सभी के सामने रखा भी था। इसके बाद उन्होंने मुझे एक लंबा पत्र लिखा और ‘हंस’ में संपादकीय भी लिखा। इसे आगामी महीने में ‘अरूणतारा’ में इसका तेलुगू अनुवाद हम प्रस्तुत करेंगे। यह सब इसलिए कि राजेंद्र यादव से हमारी उम्मीदें हमेशा बनी रहीं। हमारे बीच उनका नहीं रहना एक भरी हुई जगह के अचानक ही खाली हो जाने जैसा है, हम सभी के लिए एक क्षति है।

1980 के दशक में जब आंध्र प्रदेश में दमन का अभियान जोरों पर था और सांस्कृतिककर्मी से लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तक को बख्शा नहीं जा रहा था उस समय की ही बात है राजेंद्र यादव ‘हंस’ को लेकर आए। उसी दौरान उन्होंने पत्र व्यवहार से हमसे संपर्क किया। हमारी कविताएं भी उन्होंने प्रकाशित कीं। राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ को प्रेमचंद की परंपरा और विरासत को आगे ले जाने के वादे और नारे के साथ प्रकाशित किया था। शायद उनकी यही दावेदारी उनको विवाद के घेरे में ले आती रही। उनकी यही दावेदारी मुझे उनसे जोड़ती थी और इसी के तहत विवाद भी बनता रहा।

2002 तक आंध्र प्रदेश में राजकीय दमन अपने घिनौने रूप में सामने आ चुका था और गुंडा-गिरोहों द्वारा सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की खुलेआम हत्याएं की जा रही थीं। मेरे ऊपर पर भी इसी तरह के खतरे थे। मैं थोड़े समय के लिए उस दिल्ली आया। 2002 में ही राजेंद्र यादव से पहली मुलाकात हुई। उनकी तमाम विवादास्पद हरकतों के बावजूद मेरी उनसे एक उम्मीद जो पहले से बनी हुई थी, इस मुलाकात के बाद भी कायम रही। हैदराबाद वापस जाने पर उनसे संपर्क नहीं टूटा। यह उन पर मेरा भरोसा ही था कि पिछले दिनों हुए आयोजन के लिए जो निमंत्रण पत्र भेजा उसमें अन्य वक्ताओं का नाम न होने के बावजूद इसे स्वीकार कर लिया। इसके बाद बने विवाद के बाद मुझे उनके साथ संवाद टूट जाने की उम्मीद नहीं थी और उन्होंने लंबा पत्र लिखा भी।

एक साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी पूरे समाज को प्रभावित करता है। राजेंद्र यादव का नहीं रहना हिंदी साहित्य के साथ साथ पूरे साहित्य जगत की भी क्षति है। साहित्य के मोर्चे पर जीवन के अंतिम क्षण तक लगातार सक्रिय रहने वाले मित्र राजेंद्र यादव को विनम्र श्रद्धांजली और नमन!

नफ़स-नफ़स, क़दम-क़दम




नफ़स-नफ़स, क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए
जवाब दर-सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब
जहाँ आवाम के खिलाफ साजिशें हों शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
वहाँ न चुप रहेंगे हम,कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक हमारा हक हमें जनाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब 

               रचनाकार: शलभ श्रीराम सिंह

शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

निधन / मन्ना डे

Dhruv Gupt



एक दिन सपनों का राही चला जाए सपनों से आगे कहां !


हिंदी फिल्मों की गंभीर और शास्त्रीय आवाज़ 94-वर्षीय मन्ना डे उर्फ़ प्रबोध चन्द्र डे अब नहीं रहे। गंभीर बीमारी के बाद बैंगलोर के एक अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ दिया। मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद, मुकेश और किशोर कुमार के समकालीन मन्नाडे की अपनी शास्त्रीयता और विविधता के कारण फिल्मी गायन में एक अलग पहचान रही थी। लगभग साठ साल लंबे फिल्म कर्रिएर में मन्ना दा ने सैकड़ों कालजयी गीतों को अपना स्वर दिया। जीवन के अंतिम दिनों तक वे गायन के क्षेत्र में सक्रिय थे। उनके गाए कुछ अमर गीत हैं - ऊपर गगन विशाल, दिल का हाल सुने दिलवाला, ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़, न तो कारवां की तलाश है, ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन, तू है मेरा प्रेम देवता, ये रात भींगी भींगी ये मस्त फिजाएं, प्यार हुआ इक़रार हुआ है प्यार से फिर क्यूं डरता है दिल, आजा सनम मधुर चांदनी में हम-तुम, तू छुपी है कहां मैं तड़पता यहां, तू प्यार का सागर है तेरी एक बूंद के प्यासे हम, ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय, सुर ना सजे क्या गाऊं मैं, चलत मुसाफिर मोह लिया रे, आयो कहां से घनश्याम, नदिया चले चले रे धारा, तुम्हें सूरज कहूं या चंदा, पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, ऐ भाई ज़रा देख के चलो, तुम बिन जीवन कैसे बीता, अब कहां जाएं हम तू बता ऐ ज़मीं, झूमता मौसम मस्त महीना, यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी, ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे, कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या, जीवन से लंबे हैं बंधु इस जीवन के रस्ते, एक चतुर नार करके सिंगार, उमरिया घटती जाए रे, नैन मिले चैन कहां, लागा चुनरी में दाग, किसने चिलमन से मारा नज़ारा मुझे, ऐ मेरी ज़ोहरा ज़बीं, हंसि हंसि पनवा खिअवले बेइमनवा, झनक झनक तोरी बाजे पायलिया आदि। इनकी गंभीर और भावुक आवाज़ में बच्चन जी की 'मधुशाला' सुनना एक अद्वितीय अनुभव है। फिल्म संगीत में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें 2005 में पद्मभूषण से और 2007 में सर्वोच्च फिल्म सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा है।

मन्ना दा को हमारी अश्रुपूर्ण श्रधांजलि ! वे अपने गीतों और हमारी स्मृतियों में सदा जीवित रहेंगे !

पुण्यतिथि / साहिर लुधियानवी


मैं पल दो पल का शायर हूं पल दो पल मेरी जवानी है !

साहिर लुधियानवी को शब्दों और संवेदनाओं का जादूगर कहा जाता है। वे प्रगतिशील चेतना के ऐसे क्रांतिदर्शी शायर थे जिन्होंने जीवन के यथार्थ और कुरूपताओं से बार-बार टकराने के बावजूद शायरी के बुनियादी स्वभाव - कोमलता और नाज़ुकबयानी का दामन नहीं छोड़ा। ग़ज़लों और नज़्मों की भीड़ में भी उन्हें एकदम अलग से पहचाना जा सकता है। अदब के साथ उन्हें हिंदी / उर्दू सिनेमा के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकार का दर्ज़ा भी हासिल है। ढेरों कालजयी फिल्मों, जैसे - धर्मपुत्र, मुनीम जी, जाल, पेइंग गेस्ट, धूल का फूल, हम हिंदुस्तानी, प्यासा, सोने की चिड़िया, फिर सुबह होगी, ताजमहल, मुझे जीने दो, हम दोनों, बरसात की रात, नया दौर, दिल ही तो है, वक़्त, बहू बेगम, शगुन, लैला मजनू, गुमराह, काजल, चित्रलेखा, हमराज़, दाग, इज्ज़त, कभी कभी आदि के लिए लिखे उनके गीत कभी भुलाये न जा सकेंगे। पुण्यतिथि पर इस महान शायर को खेराज़-ऐ-अक़ीदत , उनकी फिल्म 'साधना ' की एक कालजयी नज़्म के साथ !

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा दुत्कार दिया

तुलती है कभी दिनारों में, बिकती है कभी बाजारों में
नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में
ये वो बेईज्ज़त चीज़ है जो बंट जाती है इज्ज़तदारों में
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

मर्दों ने बनाई जो रस्में उनको हक़ का फ़रमान कहा
औरत के जिन्दा जलने को कुर्बानी और बलिदान कहा
अस्मत के बदले रोटी दी और उसको भी एहसान कहा
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

मर्दों के लिए हर ज़ुल्म रवां औरत के लिए रोना भी ख़ता
मर्दों के लिए लाखों सेज़ें औरत के लिए बस एक चिता
मर्दों के लिए हर ऐश का हक़ औरत के लिए जीना भी सज़ा
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

औरत संसार की क़िस्मत है फ़िर भी तक़दीर की हेठी है
अवतार पयम्बर जनती है फ़िर भी शैतान की बेटी है
ये वह बदक़िस्मत मां है जो बेटों की सेज़ पे लेटी है
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....
— with Sahitya Akademi.
 
 
Photo: पुण्यतिथि / साहिर लुधियानवी 
मैं पल दो पल का शायर हूं पल दो पल मेरी जवानी है !

साहिर लुधियानवी को शब्दों और संवेदनाओं का जादूगर कहा जाता है। वे प्रगतिशील चेतना के ऐसे क्रांतिदर्शी शायर थे जिन्होंने जीवन के यथार्थ और कुरूपताओं से बार-बार टकराने के बावजूद शायरी के बुनियादी स्वभाव - कोमलता और नाज़ुकबयानी का दामन नहीं छोड़ा। ग़ज़लों और नज़्मों की भीड़ में भी उन्हें एकदम अलग से पहचाना जा सकता है। अदब के साथ उन्हें हिंदी / उर्दू सिनेमा के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकार का दर्ज़ा भी हासिल है। ढेरों कालजयी फिल्मों, जैसे - धर्मपुत्र, मुनीम जी, जाल, पेइंग गेस्ट, धूल का फूल, हम हिंदुस्तानी, प्यासा, सोने की चिड़िया, फिर सुबह होगी, ताजमहल, मुझे जीने दो, हम दोनों, बरसात की रात, नया दौर, दिल ही तो है, वक़्त, बहू बेगम, शगुन, लैला मजनू, गुमराह, काजल, चित्रलेखा, हमराज़, दाग, इज्ज़त, कभी कभी आदि के लिए लिखे उनके गीत कभी भुलाये न जा सकेंगे। पुण्यतिथि पर इस महान शायर को खेराज़-ऐ-अक़ीदत , उनकी फिल्म 'साधना ' की एक कालजयी नज़्म के साथ !

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया 
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा दुत्कार दिया 

तुलती है कभी दिनारों में, बिकती है कभी बाजारों में 
नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में 
ये वो बेईज्ज़त चीज़ है जो बंट जाती है इज्ज़तदारों में 
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

मर्दों ने बनाई जो रस्में उनको हक़ का फ़रमान कहा 
औरत के जिन्दा जलने को कुर्बानी और बलिदान कहा 
अस्मत के बदले रोटी दी और उसको भी एहसान कहा 
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

मर्दों के लिए हर ज़ुल्म रवां औरत के लिए रोना भी ख़ता 
मर्दों के लिए लाखों सेज़ें औरत के लिए बस एक चिता 
मर्दों के लिए हर ऐश का हक़ औरत के लिए जीना भी सज़ा 
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

औरत संसार की क़िस्मत है फ़िर भी तक़दीर की हेठी है 
अवतार पयम्बर जनती है फ़िर भी शैतान की बेटी है 
ये वह बदक़िस्मत मां है जो बेटों की सेज़ पे लेटी है
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

कविता


 'समझदारों का गीत' 
 
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझ कर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुँजिया नौकरी के लिए
आजादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोजगारी अन्याय से
तेज दर से बढ़ रही है
हम आजादी और बेरोजगारी दोनों के
खतरे समझते हैं
हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं।
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधँसान होती है
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहाँ विरोध ही बाजिब कदम है
हम समझते हैं
हम कदम-कदम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमजोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं

हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
_______________________गोरख पाण्डेय  

रविवार, 21 जुलाई 2013

संस्कृतिकर्मियों पर दमन बंद करो !



मशाल सांस्कृतिक मंच एवं भगतसिंह छात्र मोर्चा के द्वारा ( ३१ जुलाई ) प्रेमचंद्र जयंती के उपलक्ष में गीत , नुक्कड़ नाटक और सभा का आयोजन किया गया | जिसके तहत विभिन्न जगहों पर रिहर्सल किया जा रहा है | उसी कड़ी में दिनांक १५ जुलाई २०१३ को बिहार ,जिला :वैशाली के लालगंज क्षेत्र में कार्यक्रम प्रस्तुत  किया गया |
उसके बाद दिनांक १६ जुलाई २०१३ को २ बजे से मजदूर किसान सभा के नेतृत्व में जिला :पूर्वी चम्पारन ,मोतिहारी प्रखंड के देवाकुलिया चौक पर गीत एवं नुक्कड़ नाटक की प्रस्तुति कर रहे थे, तभी वहाँ पर  सीआरपीएफ. की कोबरा बटालियन ,एसटीऍफ़ ,एवं स्थानीय पुलिस से भरी चार गाड़ी आ पहुची और चारो तरफ से हम लोंगों को  घेर लिया गया |
         हथियारों के साथ पोजीसन ले लिए ,हमारे कार्यक्रम को रोक दिया गया, गाली-गलौज करने लगे |  देवकुलिया  चौक को दिन भर के लिए नाकेबंदी कर दी गयी और सभी गाड़ियों की तलासी ली जाने लगी | हम लोगों से पूछताछ करने लगे की तुम लोग कौन हो?,यहाँ क्या करने आये हो?,किसने बुलाया है?,क्या उद्देश्य है?,और कहा की तुम लोग माओवादी हो | हम लोंगों ने बताया की हम मशाल सांस्कृतिक मंच  बीएचयू. से है ,३१ जुलाई प्रेमचंद्र की जयंती के अवसर पर विभिन्न जगहों पर ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया है, हम सब  बीएचयू. के छात्र है |आई डी.कार्ड भी दिखाए ,उसके बाद हमारे बैगों की तलासी ली गयी | कुछ भी बरामद न होने पर हमें फेनहरा थाने ले जाया गया|
     जिसमे मजदूर किसान सभा: के सम्राट अशोक ,हरेन्द्र तिवारी ,अवतार सिंह कुशवाहा ,पत्रकार :संजय कुमार( तलाश पत्रिका ), मशाल सांस्कृतिक मंच: के जन गायक युद्धेश  "बेमिशाल" ,रितेश विद्यार्थी ,संतोष ,नमो नारायण ,रोहित ,शैलेश कुमार. और महिला विकास मंच: की ममता देवी ,आदि लोग थे |
    थाने में  एएसपी :संजय कुमार सिंह के नेतृत्व में थानाध्यक्ष: देवेन्द्र कुमार पाण्डेय , एसटीऍफ़ ,सीआरपीऍफ़ की कोबरा बटालियन द्वारा हमसे पूछताछ की : पैसे कहा से मिलते है? ,यहाँ क्या करने आये थे ?,किसने बुलाया था ? हमारे साथ घंटो पूछताछ ,गाली-गलौज और  डंडे लात-घुसे से मारा  -पीटा गया , टार्चर किया गया , तथा कोबरा बटालियन के कमान्डेंट ने मुर्गा बनाकर कमर पर डंडे से मारा |
  वहाँ से रात 8 बजे चार गाड़ी कोबरा बटालियन के साथ मुफस्सिल थाने  में हम लोंगों से सेलफोन, बैग एवं सारे सामानों को जब्त कर लिया गया और फिर मोतिहारी थाने ले जाया गया और जेल में बंद कर दिया गया ,रात में खाना -पानी तक भी नहीं दिया गया तथा लैट्रीन बाथरूम पर भी पाबन्दी लगा दी गयी | विभिन जन संगठनो ,पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों आदि द्वारा दबाव बनाए जाने पर अगले दिन दिनांक : १७ जुलाई २०१३ को ३ बजे जब हमारे ऊपर कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ तो उन्हें हमें छोड़ना  पड़ा |


(   मोतिहारी के स्थानीय अखबार की खबर   )
   उत्तरी बिहार के पूरे ईलाके वैशाली ,पूर्वी चम्पारन ,मुजफ्फरपुर ,हाजीपुर को सीआरपीएफ ,पुलिस द्वारा गरीब ,पिछडों को माओवादी घोषित कर  किसी को भी उग्रवादी ,माओवादी कह कर उठा ले जाती है | वहां की जनता में भय का माहौल है और जनता सीआरपीएफ ,पुलिसिया दमन से त्रस्त है ,वहां पर कोई भी छोटे-बड़े   इस  तरह के कार्यक्रम भी नहीं करने दिया जाता है| सीआरपीएफ के सामने पुलिस की कुछ भी नहीं चलती है सब कुछ सीआरपीएफ के निर्देश पर थाने की मदद से होता है |

गुरुवार, 20 जून 2013

यादों में फड़फड़ाता है लाल माथे पर एक नीला रिबन



दलित, अल्पसंख्यक बस्तियों से गुजरती हुई नीले परों वाली एक लाल चिड़िया की याद आती है आज के दिन. सुनसान सड़कों पर उभरते जुलूस की शक्ल और तनी हुई मुट्ठियों का कोरस याद आता है. नजरों में फिर जाती है राजधानियों की कत्लगाहों की बेचारगियां और हवा में कारतूस की गंध. यादों में फड़फड़ाता है लाल माथे पर एक नीला रिबन.

विलास घोगरे. आप जानते हैं उन्हें.

आज से पंद्रह साल पहले मुंबई में भूमिहीन दलित, आदिवासी जनता के क्रांतिकारी गायक विलास घोगरे ने आत्महत्या कर ली थी. घोगरे ने भारतीय समाज के अर्धसामंती और अर्धऔपनिवेशिक शोषण में पिसते किसान मजदूर जनता के दुखों की कहानी ही नहीं कही, उसके बहादुराना संघर्ष की बेमिसाल दास्तान भी गाई है. और इस तरह गाई है कि इनको अलग-अलग नहीं किया जा सकता. घोगरे के यहां जहां भी दुख है, तकलीफ है, पीड़ा है, शोषण और उत्पीड़न है, वहां इसके खिलाफ संघर्ष भी है, निरंतर संघर्ष, राजनीतिक और कांतिकारी संघर्ष. वे शोषण और उत्पीड़न को बनाए रखने की एक प्रणाली के रूप में संसद और संसदीय चुनावों के अंतर्निहित जनविरोधी चरित्र को समझते हैं और इसको ध्वस्त करके समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण का आह्वान करते हैं. वे सत्ता पर दलितों, आदिवासियों, भूमिहीन किसानों और मजदूरों का अधिकार चाहते हैं. घोगरे आह्वान से जुड़े हुए थे और उनका व्यापक सांस्कृतिक-राजनीतिक जुड़ाव गदर के नेतृत्व में चले सांस्कृतिक आंदोलन तथा देश के दूसरे इलाकों के क्रांतिकारी सांस्कृतिक परंपराओं से था. उन्होंने चुनाव और संसद के फंदे में जा फंसे बेईमान वामपंथी दलों के असली चरित्र को भी जनता के सामने रखा.

1997 में 11 जुलाई को जब मुंबई के घाटकोपर में दलितों-मुसलिमों की बस्ती रमाबाई नगर में बाबा साहेब की प्रतिमा का अपमान किए जाने के खिलाफ आक्रोशित दलितों पर पुलिस ने फायरिंग की और दस से अधिक लोग शहीद हुए, तो उसी बस्ती में रहने और राजनीतिक काम करने वाले घोगरे इस वेदना को बरदाश्त नहीं कर पाए. उन्होंने 15 जुलाई को आत्महत्या कर ली.

यहां उनको याद करते हुए उनके कुछ मशहूर गीत प्रस्तुत हैं. घोगरे को आज के समय में याद करने का मतलब उन सारे संस्कृतिकर्मियों, लेखकों, पत्रकारों की हिमायत में उठ खड़े होना है, जो घोगरे की जनपक्षधर क्रांतिकारी गतिविधियों के राजनीतिक हमसफर हैं. घोगरे को याद करने का मतलब सुधीर ढवले, सीमा आजाद, विश्वविजय, अभिज्ञान सरकार, देबोलीना, कबीर कला मंच के साथियों, उत्पल और दूसरे दर्जनों कार्यकर्ताओं की हिमायत में अपनी आवाज बुलंद करना है, जो दलित, आदिवासी जनता के संघर्षों का साथ देने और सत्ता प्रतिष्ठानों का विरोध करने की वजह से अलग-अलग जगहों पर जेलों में बंद हैं.

हाल ही में फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने जय भीम कॉमरेड  के नाम से एक लंबी फिल्म बनाई है, जो विलास घोगरे को याद करते हुए, उनको केंद्र में रखते हुए भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक दलित आंदोलनों के विभिन्न आयामों का जायजा लेती है. इसे जरूर देखा जाना चाहिए. डीवीडी के रूप में यह फिल्म उपलब्ध है और इसे हासिल करने के तरीके के बारे में जानने के लिए यहां क्लिक करें. घोगरे को याद करते हुए हेई पी. न्यूटन द्वारा क्रांतिकारी आत्महत्या  पर लिखा गया यह लेख भी पढ़ें.


ये आजादी झूठी है


ये आजादी झूठी है

ये आजादी झूठी है

लुटेरों की चांदी है

ये आजादी झूठी है

लुटेरों की चांदी है

साथियो लूट को मिटाना है

साथियो जुल्म को मिटाना है

रोटी है तो सब्जी नहीं

सब्जी है तो रोटी नहीं

शेर नन्हे – मुन्ने भी भूख से तड़पते हैं

साथियो पास कोई सिक्का नहीं

साथियो रोने को भी कोई आस नहीं

ये आजादी झूठी है

लुटेरों की चांदी है

कभी भी आराम नहीं

मेहनत का दाम नहीं

रात दिन उगाते हो मिट्टी से सोना तुम

साथियो खाने को दाना एक मुट्ठी नहीं

साथियो जीवनभर छुट्टी नहीं

ये आजादी झूठी है

लुटेरों की चांदी है

नाले सब साफ किये

जिंदगी अछूत हुई

ये सफेदपोश हुए

तेरी उम्र धूल हुई

साथियो नाली तेरी गंगा है

साथियो झोपड़ी हैं शीशमहल

ये आजादी झूठी है

लुटेरों की चांदी है

बच्चा बीमार पड़ा है

लेके अस्पताल चले

कोई नहीं सुनता है घूस दिए, पैर पड़े

घूस लेने को भी कर्जा लिया

साथियो गोली है तो सुई नहीं

साथियो सुई है तो गोली नहीं

ये आजादी झूठी है

लुटेरों की चांदी है

पहली से पढ़ा हुआ लड़का बेकार हुआ

नौकरी तलाशी तो दर दर ठोकर खाई

मिनिस्टर के बेटे ने बैठे बिठाई पाई

साथियो पढाई का ऐसा हाल

साथियो बुद्धू हैं मालामाल

आ गया इलेक्शन नेताजी आये हैं

दिल तो पूरा नहीं है

टोपी बदल लाये हैं

तुमसे हाथ जोड़ रहे

हाल चाल पूछ रहे

मीठी मीठी बात करें

वादो से घात करें

साथियो वोट तेरा लूट लिया

साथियो गद्दी पर बैठ गया

ये आजादी झूठी है

लुटेरों की चांदी है

रो रो के जीने से

घुट घुट के मरने से

सिर्फ़ वोट देने से

अपना वोट लेने से

चोरो को उठाने से

मिटता ये जुल्म नहीं

मिटती ये भूख नहीं

साथियो जुल्म अगर मिटाना है

साथियो लूट अगर मिटानी है

साथियो इनकलाब लाना है

साथियो इनकलाब लाना हैं

ये आजादी झूठी है

लुटेरों की चांदी है

ये आजादी झूठी है

लुटेरों की चांदी है

भारत अपनी महान भूमि


भारत अपनी महान भूमि इसकी कहानी सुनो रे भाई

भारत अपनी महान भूमि

इसकी कहानी सुनो रे भाई

सर पे खड़ा है बड़ा हिमालय

नदिया बहती गंगा, जमुना,

ब्रह्मपुत्रा, गोदावरी, कृष्णा

हरीभरी धरती पर अपने

निकले मोती उगले सोना

चीजों से भंडार भरा है

अनाज से गोदाम भरा है

पर घर मैं मेहमान आये तो

साथ उसी के भूखा सोना

आर्ररेरेरेरेरे रा रा हा

सुजलाम सुफलाम इसी देश में

रोटी महंगी क्यों रे भाई

भारत अपनी महान भूमि

इसकी कहानी सुनो रे भाई

रुपये में जब अस्सी पैसा

खेती पे करते हैं भरोसा

खेती का पानी पे है भरोसा

पानी का बादल पे भरोसा

और गंगाजल पे है भरोसा

बैल, खाद और नहर की चाबी

सभी बड़ों के हाथ में आयी

आर्ररेरेरेरेरे रा रा हा

खेती प्रमुख इस भारत भू में

किसान भूखा क्यों रे भाई

खेती प्रमुख इस भारत भू में

किसान भूखा क्यों रे भाई

कोठे में जलती है बिजली,

तुम्हें बताऊं कैसे निकली

मजदूर के नसलों से भाई

लंबी चौड़ी तार बनाई

मसल से पलक बनाया

पलकों पे बलब बनाया

बटन दबाओ करो उजाला

मजदूर झेले खून की ज्वाला

आर्ररेरेरेरेरे रा रा हा

जग को उजाला देनेवाला

अंधेरे में क्यों रे भाई

जग को उजाला देनेवाला

अंधेरे में क्यों रे भाई

यहां गाय की होती पूजा

कुत्ते को घर का दरवाजा

बिल्ली को चूल्हे तक आजा

गोमूत्र को पवित्र समझे

गोबर से आंगन को सजाता

मानव बनाये चप्पल जूता

गोबर उठाता, गाय चराता

धार निकाले गाय भैंस की

दूध निकाले पीने देता

वही पीये और जाये अखाड़ा

हिन्द केसरी भी कहलाता

आर्ररेरेरेरेरे रा रा हा

मानव को जो उठाये

वो अछूत कैसा रे भाई

मानव को जो उठाये

वो अछूत कैसा रे भाई

यहां की नारी बनी देवता

सती सावित्री राम की सीता

यहां की नारी बनी देवता

सती सावित्री राम की सीता

रानी अहिल्या हिम्मत वाली

रानी लक्ष्मी झांसी वाली

कोई कहेगा दिल्ली वाली

इंद्र की इस कर्मभूमि पर

इंद्र की इस धर्मभूमि पर

नारी पे क्या क्या ना गुजरी

आर्ररेरेरेरेरे रा रा हा

बच्चों की रोटी के वास्ते

शरीर बेचे क्यों रे भाई

बच्चों की रोटी के वास्ते

शरीर बेचे क्यों रे भाई

ऐसे अपनी कर्मभूमि के

लीडर कैसे कैसे देखो

हिन्दुराष्ट्र के अटल बिहारी

किसानपुत्र चरण चौधरी

साथ में इनके मोरारजीभाई

लाखों रुपये का चुनाव लड़कर

जगजीवन बने दलित लीडर

तेलगू देस का एनटीआर तो

कॉसमीशन में प्रभु बना है

नाग की कुन्डी बनाकर

इनकम टैक्स दबा बैठा है

ये साले सब सफेद हाथी

गुन्डा मवाली इनके साथी

ये गरिबों की क्या सोचेंगे

इसने कभी ना मेहनत देखी

शेर हिरण को मार ही देगा

कसाई बकरा नही छोड़ेगा

जबकि लीडर शेर कसाई

हम बकरों को क्या छोड़ेगा

आर्ररेरेरेरेरे रा रा हा

छुपा हुआ शैतान मिलेगा इनकी टोपी में रे भाई

राज गरीब का लानेवाले

इनकलाब चिल्लाने वाले

सीपीएम के ज्योति बसु

राजा बना घूमता फिरता है

मार्क्सवाद का खून करें वो

मार्क्सवाद कहते रे भाई

सर्वहारा के नाम पे सारे

मालदार बन गये रे भाई

जमीन के लिए लड़ने वाले

बन्धू अपने नक्सल भाई

हाथों में हथियार थमा दिया रे

आर्ररेरेरेरेरे रा रा हा

कांग्रेस की सरकार यहां पर

सारा वक्त सत्ता के बराबर

गरीबी हटाओ का नारा लगाकर

गरीब को लुटा है बराबर

एशियाड में रुपया गंवाया

और जनता पर टैक्स चढ़ाया

बढ़ी अमीरी बढ़ी गरीबी

टाटा, बिरला खूब कमाया

जमीन के लिए लड़ने वाले

बन्धू अपने नक्सल भाई

हाथों में हथियार थमा दिया रे

आर्ररेरेरेरेरे रा रा हा

अरे शैतानों को मिली आजादी

हमें किया बरबाद रे भाई

अरे शैतानों को मिली आजादी

हमें किया बरबाद रे भाई

दुनिया के बाजार में भाई

रशिया अमरीका बड़े सेठ हैं

युद्धसामग्री बनानेवाले

छोटे देश को लड़ानेवाले

खुद ही आपस मैं लड़ मरते हैं

अपना देश दोनों के हाथ में

राजु, राज उनके ही साथ में

जो भी था रशिया ले गया

बाकी बचा अमरीका खा गया

जमीन के लिए लड़ने वाले

बन्धू अपने नक्सल भाई

हाथों में हथियार थमा दिया रे

आर्ररेरेरेरेरे रा रा हा

हमारे लिए छोड़ दिया है

नंगा भूखा भारत भाई

हमारे लिए छोड़ दिया है

नंगा भूखा भारत भाई

ये है कहानी मेरी तुम्हारी

नहीं किसी की बनी बनाई

सदियों से सुना है हरा रंग भरा

अबके हाथ में आया है मौका

अबकी लोहा लाल हुआ है

जोरदार ही लगा दो ठोका

पाना है मजदूर मुक्ति को

रोकना है शोषण शक्ति को

मजदूर के शासन के वास्ते

अब तो जागना पड़ेगा भाई

मजदूर के शासन के वास्ते

हाथ में हथियार होना भाई

हाथ में हथियार होना भाई

हाथ में हथियार होना भाई

(गदर के मूल तेलुगू गीत का हिंदी रूपांतरण विलास घोगरे ने किया था)

हिसाब कर ले


क्या खोया क्या पाया जिंदगी में हिसाब कर ले

क्या खोया क्या पाया जिंदगी में

हिसाब कर ले

क्या खोया क्या पाया जिंदगी में

हिसाब कर ले

जनम मिला है दु:ख में

जीना – मरना भी दु:ख में

जनम मिला है दु:ख में

जीना – मरना भी दु:ख में

क्यों ना सुख को अपनाया जिंदगी में

हिसाब कर ले

क्या खोया क्या पाया जिंदगी में

हिसाब कर ले

दुनिया की हर चीज बनाई तूने

दुनिया की रौनक बढ़ाई तूने

सदियों से खून पसीना बहाकर

दुनिया की ठोकर खाई तूने

मेहनत करके रोटी को तरसा है तू

मेहनत करके रोटी को तरसा है तू

नंगे फकीर की दुनिया में अरसा है तू

जो तेरी मेहनत पे रहता है शीश महल में

जो तेरी मेहनत पे रहता है शीश महल में

क्यों ना अब तक ठुकराया जिंदगी में

हिसाब कर ले

क्या खोया क्या पाया जिंदगी में

हिसाब कर ले

कल का दिन तेरा है यकीनन है

पर फसा है तू आपस के झगड़े में

वरना विजय तुझको मुमकिन है

लाल झंडे तले तुझे आना होगा

इनकलाब का गीत भी गाना होगा

इतिहास में पता है

मजदूर ही पिता है

अब की खुद को फर्माया जिंदगी में

हिसाब कर ले

क्या खोया क्या पाया जिंदगी में

हिसाब कर ले

क्या खोया क्या पाया जिंदगी में

हिसाब कर ले

जनम मिला है दु:ख में

जीना – मरना भी दु:ख में

जनम मिला है दु:ख में

जीना – मरना भी दु:ख में

क्यों ना सुख को अपनाया जिंदगी में

हिसाब कर ले।

एक कथा सुनो रे लोगो  

आनंद पटवर्धन की फिल्म मुंबई हमारा शहर का अंश जिसके लिए घोगरे ने यह गीत गाया था
साभार - हाशिया ब्लॉग

राष्ट्रीय मुक्ति और संस्कृति: अमिल्कर कबराल



पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी बिसाऊ के मुक्ति आंदोलन के नेता अमिल्कर कबराल का जन्म 12 सितंबर 1924 को बफाता नामक कस्बे में हुआ था। 1945 में उन्होंने कृषि विज्ञान की शिक्षा के लिए लिस्बन स्थित संस्थान में प्रवेश किया और 1952 में वहां से डिग्री हासिल की। उन दिनों अंगोला, मोजांबीक और गिनी बिसाऊ में पुर्तगाल का शासन था। छात्र जीवन के दौरान कबराल ने पुर्तगाल में जनतांत्रिक शक्तियों के साथ संपर्क किया और वहां के जनतांत्रिक आंदोलन में भूमिगत रूप से सक्रिय रहे। 1953 में स्वदेश लौटने पर राजधनी बिसाऊ में उन्हें कृषि इंजीनियर की नौकरी मिली। यहां भी उनकी राजनीतिक गतिविध्यिां जारी रहीं और 1955 में उन्हें सरकार विरोधी होने का आरोप लगाकर नौकरी से निकाल दिया गया और देश छोड़ने का भी हुक्म हुआ। 1955-56 में अंगोला में उन्हें एक नौकरी मिली जहां अंगोला के प्रमुख राष्ट्रवादी नेता अगोस्तिनो नेतो से मुलाकात हुई। कबराल ने अंगोला की मुक्ति के लिए बने संगठन एमपीएलए की स्थापना में नेतो की मदद की। सितंबर 1956 में कबराल ने गिनी बिसाऊ और केप वेर्दे की आजादी के लिए पीएआईजीसी नामक संगठन की स्थापना की और 1960 से सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत कर दी। 20 जनवरी 1973 को पुर्तगाल द्वारा नियुक्त भाड़े के सैनिकों ने कबराल की हत्या की।
 

अब तक राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से कबराल ने अपने संगठन को इतना शक्तिशाली बना दिया था कि पुर्तगाली शासकों के लिए अध्कि समय तक गिनी में टिके रहना संभव नहीं था। सितंबर 1973 में गिनी बिसाऊ को पूर्ण आजादी मिल गई।
 

अमिल्कर कबराल ने साहित्य और संस्कृति से संबंधित प्रश्नों पर बहुत विस्तार से लिखा है और राजनीतिज्ञ के साथ-साथ एक संस्कृतिकर्मी के रूप में भी उनको सारी दुनिया में सम्मान प्राप्त है। कबराल का कहना है कि कोई भी जनता जो विदेशी प्रभुत्व से अपने को मुक्त कराती है सांस्कृतिक दृष्टि से भी तभी स्वतंत्रता पा सकती है जब उत्पीड़क देश तथा अन्य देशों की संस्कृति के सकारात्मक तत्वों को बिना किसी हिचक और ग्रंथि के अपना कर वह अपनी संस्कृति के उन्नत मार्ग पर बढ़ने के लिए तैयार हो। अगर साम्राज्यवादी शासन के लिए यह जरूरी है कि वह सांस्कृतिक उत्पीड़न करे तो राष्ट्रीय मुक्ति के लिए भी जरूरी है कि वह मुक्ति आंदोलन को एक सांस्कृतिक कर्म समझे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन संघर्ष कर रही जनता की संस्कृति की संगठित राजनीतिक अभिव्यक्ति है।
 

अमिल्कर कबराल ने 20 फरवरी 1970 को न्यूयार्क में संस्कृति और मुक्ति आंदोलन के अंतर्संबंधों पर एक व्याख्यान दिया था जिसका संक्षिप्त रूप ‘राष्ट्रीय मुक्ति और संस्कृति’ शीर्षक के अंतर्गत यहां प्रस्तुत है।– आनंद स्वरूप वर्मा, अनुवादक एवं संपादक, समकालीन तीसरी दुनिया


नाजी पार्टी के प्रमुख प्रचारक ग्योबेल्स ने जब सुना कि उसके यहां संस्कृति पर लोग बातचीत कर रहे हैं तो उसने अपनी रिवाल्वर तान ली। इससे पता चलता है कि नाजियों को, जो साम्राज्यवाद की सबसे दुखद अभिव्यक्ति थे-यह स्पष्ट था कि संस्कृति का क्या महत्व है और विदेशी प्रभुत्व का प्रतिरोध करने में इसकी कितनी बड़ी भूमिका हो सकती है। इतिहास हमें बताता है कि कुछ खास परिस्थितियों में विदेशियों के लिए जनता पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना बहुत आसान है। लेकिन इतिहास से ही हमें यह भी शिक्षा मिलती है इस प्रभुत्व के भौतिक पहलू चाहे जो भी हों इसको बरकरार तभी रखा जा सकता है जब गुलाम बनाई गयी जनता के सांस्कृतिक जीवन का स्थायी तौर पर और संगठित रूप से दमन कर दिया जाए। वास्तविकता यह है कि किसी देश की जनता पर शासन करने के लिए हथियारों से भी ज्यादा कारगर तरीका यह है कि उसके सांस्कृतिक जीवन को या तो बिल्कुल लकवाग्रस्त कर दिया जाए या समाप्त कर दिया जाए। कारण यह कि अगर देशज सांस्कृतिक जीवन शक्तिशाली रूप में मौजूद है तो विदेशी प्रभुत्व कभी भी निश्चिंत होकर अपना शासन स्थायी नहीं बना सकता। किसी भी क्षण, जो आंतरिक और बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है, सांस्कृतिक प्रतिरोध (अविनाशकारी) विदेशी प्रभुत्व का पूरी तरह मुकाबला करने के लिए नया रूप (राजनीतिक, आर्थिक, हथियारबंद) ग्रहण कर सकता है।

साम्राज्यवादी प्रभुत्व के लिए आदर्श स्थिति इस बात का चुनाव करना है कि-- या तो शासित देश की समग्र आबादी को पूरी तरह वह समाप्त कर दे ताकि सांस्कृतिक प्रतिरोध की संभावना ही खत्म हो जाए, अथवा- शासित देश की जनता की संस्कृति को नुकसान पहुंचाए बिना खुद को उन पर थोपने में उसे सफलता मिल जाए। कहने का मतलब यह कि उस देश की जनता पर स्थापित आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व एवं उस देश की जनता के सांस्कृतिक व्यक्तित्व के बीच एक सामंजस्य बैठा लिया जाए। पहली परिकल्पना में देशज आबादी के नरसंहार की बात निहित है और यह विदेशी प्रभुत्व की पूरी अवधरणा को भी व्यर्थ साबित करती है क्योंकि अगर जनता का अस्तित्व ही नहीं रहेगा तो शासन किस पर किया जाएगा। दूसरी परिकल्पना की पुष्टि अभी तक इतिहास के जरिए नहीं हो सकती है। मानव समुदाय के संदर्भ में जो व्यापक अनुभव हमारे पास हैं उनसे पता चलता है कि दूसरी संभावना भी व्यावहारिक नहीं है। यह संभव ही नही है कि आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व तथा शासित देश के लोगों के सांस्कृतिक व्यक्तित्व के बीच कोई सामंजस्य बैठाया जा सके।

इस चुनाव से बचने के लिए - जिसे ‘सांस्कृतिक प्रतिरोध की दुविधा’ कहा जा सकता है-साम्राज्यवादी औपनिवेशिक प्रभुत्व ने कुछ ऐसे सिद्धांत गढ़ने की कोशिश की है जो विशुद्ध रूप से नस्लवाद पर आधारित सिद्धांत है और जिनको अगर व्यवहार में लाया जाए तो नस्ली तानाशाही के आधार पर (जिसे जनतंत्र भी कह देते हैं) देशज आबादी की स्थायी घेराबंदी करना है। मिसाल के तौर पर देशज आबादी के बारे में ‘समाहित करने’ (एसिमिलेशन) का तथाकथित सिद्धांत कुल मिलाकर संबद्ध जनता की संस्कृति को नकारने का एक उग्र उपाय ही साबित हुआ। इस सिद्धांत की जबर्दस्त विफलता से साफ पता चलता है कि इसके अंदर व्यावहारिकता का तत्व नहीं के बराबर है। आपने देखा होगा कि पुर्तगाल सहित अनेक उपनिवेशवादी शक्तियों ने इस सिद्धांत को आजमाया। पुर्तगाल के तानाशाह सालाजार ने यह कहकर कि अफ्रीका का अस्तित्व ही नहीं है कितनी बड़ी मूर्खता का परिचय दिया था। रंगभेद नीति के तथाकथित सिद्धांत के बारे में भी यही बात सच है। इसे एक नस्लवादी अल्पसंख्यक समूह ने दक्षिणी अफ्रीका की जनता के आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व के आधार पर विकसित और लागू किया और मानवता के खिलाफ बर्बर अपराध को जन्म दिया।
ये व्यावहारिक अनुभव विदेशी साम्राज्यवादी प्रभुत्व के नाटक की अच्छी जानकारी देते हैं क्योंकि शासित जनता के सांस्कृतिक यथार्थ से इनकी सीधे मुठभेड़ होती है। इससे यह भी पता चलता है कि मानव समाज में ‘सांस्कृतिक स्थिति’ और ‘आर्थिक (तथा राजनीतिक) स्थिति के बीच कितना मजबूत और अन्योनाश्रित संबंध है।

विदेशी प्रभुत्व का प्रतिरोध करने में जो तमाम कारक काम में आते हैं उनमें संस्कृति का महत्व इसलिए भी बहुत ज्यादा है क्योंकि सैद्धांतिक और वैचारिक आधार पर उस समाज की वास्तविकताओं की सशक्त अभिव्यक्ति संस्कृति में ही होती है। संस्कृति एक ही समय में जनता के इतिहास का परिणाम भी है और इतिहास की नियामक शक्ति भी। इसका मनुष्य तथा उसके परिवेश, लोगों तथा किसी समाज में रह रहे लोगों के बीच संबंधों के विकास पर जो भी सकारात्मक अथवा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है वह बहुत महत्वपूर्ण है। इस तथ्य से अनजान रहने का मतलब है विदेशी प्रभुत्व का मुकाबला करने में पीछे रहना और यही अनेक अंतर्राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों की विफलता की भी कहानी है।

अब थोड़ा हम राष्ट्रीय मुक्ति की प्रकृति पर चर्चा कर लें। इस ऐतिहासिक परिघटना को हम समकालीन संदर्भों में देखेंगे अर्थात साम्राज्यवादी प्रभुत्व के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति की अवधरणा को रखेंगे। चाहे कैसा भी साम्राज्यवादी प्रभुत्व क्यों न हो इसकी एक खास विशेषता यह है कि यह उत्पादक शक्तियों की विकास प्रक्रिया को हिंसात्मक तरीके से रोकता है और इस प्रकार शासित लोगों की ऐतिहासिक प्रक्रिया को नकारता है। अब यह देखें कि किसी भी समाज में उत्पादक शक्तियों के विकास का स्तर और इन शक्तियों की सामाजिक उपयोगिता की प्रणाली (स्वामित्व प्रणाली) उत्पादन के स्वरूप को तय करती है। हमारी राय में उत्पादन का स्वरूप, जिसके अंतर्विरोध कमोबेश वर्ग संघर्ष की तीव्रता के जरिए अभिव्यक्त होते हैं, किसी भी मानव समुदाय के इतिहास के प्रमुख कारक है। उत्पादक शक्तियों का स्तर ही इतिहास की वास्तविक और स्थायी चालक शक्ति है।

प्रत्येक समाज अथवा प्रत्येक जनसमूह के लिए, जिसे एक विकासमान इकाई के रूप में माना जाता है, उत्पादक शक्तियों के स्तर से ही इस बात का संकेत मिलता है कि वह समाज विकास की किस अवस्था में है। इससे इस बात का भी संकेत मिलता है कि उस समाज को निर्मित करने वाले विभिन्न समूहों या तत्वों के बीच किस तरह का भौतिक संबंध है जो वस्तुगत रूप में अथवा आत्मगत रूप में अभिव्यक्त होता है। मनुष्य और प्रकृति तथा मनुष्य और उसके परिवेश के बीच संबंधों और संबंधों के प्रकारों, व्यक्ति तथा समाज के सामूहिक अवयवों के बीच संबंधों एवं संबंधों के प्रकारों की भी जानकारी उत्पादक शक्तियों के स्तर से ही मिलती है। इनके बारे में बात करने का अर्थ है इतिहास के बारे में बात करना लेकिन इसका अर्थ संस्कृति के बारे में भी बात करना है। सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की जो भी वैचारिक अथवा आदर्शवादी विशिष्टताएं हों, संस्कृति जनता के इतिहास का एक आवश्यक तत्व है। संभवतः संस्कृति इस इतिहास का वैसा ही उत्पाद है जिस प्रकार किसी पौधे का उत्पाद है फूल। इतिहास की ही तरह अथवा यों कहें कि चूंकि यह इतिहास है इसलिए भी उत्पादन प्रणाली तथा उत्पादक शक्तियों का स्तर ही संस्कृति का भौतिक आधार है। संस्कृति अपनी जड़ों को खाद-मिट्टी रूपी उस परिवेश में गहरे जमाती है जिसमें इसका विकास हो और यह समाज की जैवीय प्रकृति को अभिव्यक्त करता है जो कमोबेश बाह्य तत्वों द्वारा प्रभावित हो सकती है। इतिहास हमें उन संघर्षों और असंतुलनों (आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक) की सीमा और प्रकृति की जानकारी देता है जो सामाजिक विकास की विशिष्टताएं हैं। संस्कृति विकास के प्रत्येक चरण में इन संघर्षों के समाधन के लिए सक्रिय उस गतिशील संश्लेषण से हमें अवगत कराता है जिसका अपने अस्तित्व और विकास की तलाश के लिए सामाजिक चेतना के जरिए निर्माण हुआ है।

किसी पौधे से निकले फूल की ही तरह संस्कृति में भी एक ऐसे पौधे के निर्माण और उर्वरण की क्षमता (अथवा दायित्व) है जो इतिहास की निरंतरता को सुनिश्चित करता है और साथ ही संबद्ध समाज के विकास की संभावना की गारंटी देता है। इस प्रकार यह समझा जाता है कि साम्राज्यवादी प्रभुत्व जब गुलाम देश की जनता के ऐतिहासिक विकास को नकारता है तो वह बुनियादी तौर से उसके सांस्कृतिक विकास को भी नकारता है। यह भी समझा जा सकता है कि क्यों साम्राज्यवादी प्रभुत्व अन्य सभी विदेशी प्रभुत्व की तरह अपनी खुद की सुरक्षा के लिए सांस्कृतिक उत्पीड़न का सहारा लेता है और शासित लेागों की संस्कृति के मूल तत्वों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से पूरी तरह नष्ट कर देने का प्रयास करता है।

राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के इतिहास का अध्ययन करने से यह पता चलता है कि इन संघर्षों के शुरू होने से पहले आमतौर पर संस्कृति के क्षेत्र में अभिव्यक्ति का परिमाण बढ़ जाता है और उत्पीड़क देश की संस्कृति को नकारते हुए अपनी खुद की सांस्कृतिक अस्मिता को स्थापित करने का सफल अथवा असफल प्रयास बहुत तेज हो जाता है। साम्राज्यवादी प्रभुत्व को झेलते हुए जनता की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति चाहे जो भी हो, हम देखते हैं कि संस्कृति में ही प्रतिरोध के वे बीज छिपे होते हैं जो आगे चलकर मुक्ति आंदोलन के निर्माण और विकास में सहायक होते हैं।

हमारी राय में राष्ट्रीय मुक्ति की बुनियाद जनता के उस अभिन्न अध्किार में निहित है जो अपना खुद का इतिहास होने की मांग करती है। इसलिए राष्ट्रीय मुक्ति का उद्देश्य उन अध्किारों को फिर से हासिल करना है जिन्हें साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने नष्ट कर दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है राष्ट्रीय उत्पादक शक्तियों के विकास की प्रक्रिया को मुक्ति दिलाना। यही वजह है कि राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन तभी और केवल तभी शुरू हो सकता है जब राष्ट्रीय उत्पादक शक्तियां पूरी तरह से हर प्रकार के विदेशी प्रभुत्व से स्वतंत्र हों। कोई भी जनता जो विदेशी प्रभुत्व से अपने को मुक्त कराती है सांस्कृतिक दृष्टि से भी तभी स्वतंत्रता पा सकती है जब उत्पीड़क देश तथा अन्य देशों की संस्कृति के सकारात्मक तत्वों को बिना किसी हिचक और ग्रंथि के अपना कर वह अपनी संस्कृति के उन्नत मार्ग पर बढ़ने के लिए तैयार हो। इस प्रक्रिया में वह विदेशी संस्कृति के सभी हानिकारक प्रभावों से अपने को मुक्त भी करती है।

इसीलिए यह कहा जा सकता है कि अगर साम्राज्यवादी शासन के लिए यह जरूरी है कि वह सांस्कृतिक उत्पीड़न करे तो राष्ट्रीय मुक्ति के लिए भी यह जरूरी है कि वह मुक्ति आंदोलन को एक सांस्कृतिक कर्म समझे।

जो बातें अभी कही गयी हैं उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन संघर्ष कर रही जनता की संस्कृति की संगठित राजनीतिक अभिव्यक्ति है। इसीलिए इस आंदोलन का नेतृत्व करने वालों के पास संघर्ष के ढांचे के अंतर्गत संस्कृति के मूल्य की तथा जन संस्कृति की साफ समझ होना बहुत जरूरी है। हमारे युग में आमतौर से यह सुनने को मिलता है कि सभी लोगों की अपनी एक संस्कृति है। यह बीते दिनों की बात है कि जब जनता पर अपना प्रभुत्व मजबूत करने के लिए संस्कृति को सुविधाप्राप्त लोगों या राष्ट्रों तक ही सीमित कर दिया गया था और जब अज्ञानतावश अथवा किसी चाल के तहत संस्कृति को एक तकनीकी स्वरूप दे दिया गया था। मसलन चमड़ी के रंग के आधार पर अथवा आंख की बनावट के आधार पर इसकी व्याख्या की जाती थी। जनता की सांस्कृतिक धरोहर के रक्षक और इसके प्रतिनिधि होने के कारण मुक्ति आंदोलन को इस तथ्य के प्रति सजग रहना चाहिए कि जिस समाज का वह प्रतिनिधित्व कर रहा है उसकी भौतिक स्थितियां चाहे जो हों, वह समाज ही संस्कृति का वाहक और उसका निर्माता है। इसके अलावा मुक्ति आंदोलन को ज्यादा से ज्यादा जनवादी स्वरूप ग्रहण करना चाहिए, संस्कृति का लोकप्रिय रूप अपनाना चाहिए जो कभी भी समाज के एक या कुछ हिस्सों का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता है।

सामाजिक संरचना के समग्र विश्लेषण में, जिसे करने में प्रत्येक मुक्ति आंदोलन का अनिवार्य रूप से सक्षम होना चाहिए, समाज के प्रत्येक समूह की सांस्कृतिक विशिष्टताओं का एक महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि संस्कृति का जहां एक जनवादी स्वरूप है वहीं इसे एक समान नहीं कह सकते। इसका विकास समाज के सभी क्षेत्रों में समान रूप से नहीं होता। मुक्ति संघर्षों के प्रति प्रत्येक सामाजिक समूह का रुख उसके आर्थिक हितों से निर्देशित तो होता ही है, यह बड़े पैमाने पर उसकी संस्कृति से भी प्रभावित होता है। यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि संस्कृति के स्तर पर जो तमाम विभिन्नताएं हैं उन्हीं से मुक्ति आंदोलन के प्रति उन लोगों के व्यवहार की विभिन्नताओं का भी पता चलता है जो उसी सामाजिक-आर्थिक समूह से आते हैं।

हमारे देश की खास परिस्थितियों में संस्कृति के स्तर की विभिन्नताएं थोड़ी जटिल है। दरअसल गांव से शहर के बीच, एक जातीय समूह से दूसरे के बीच, एक आयु वर्ग से दूसरे के बीच, किसान वर्ग से लेकर मजदूर वर्ग के बीच और यहां तक कि एक ही सामाजिक समूह में एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के बीच संस्कृति का परिमाणात्मक और गुणात्मक स्तर उल्लेखनीय रूप से काफी भिन्न है। मुक्ति आंदोलन को चाहिए कि वह इन सभी बातों को ध्यान में रखकर ही अपनी रणनीति तैयार करे।

कुछ ऐसे समाजों में जहां की सामाजिक संरचना अलग ढंग की है जैसे बैलेंटे में-सांस्कृतिक स्तर का विभाजन कमोबेश समान है और जो विभिन्नताएं हैं वे कुछ व्यक्तियों के अथवा आयु वर्गों की विशिष्टताओं से जुड़ी हुई हैं। दूसरी तरफ ऐसे समाज में जहां का सामाजिक ढांचा श्रेणीबद्ध है (मसलन फुला में) सामाजिक पिरामिड के नीचे से लेकर ऊपर तक महत्वपूर्ण विभिन्नताएं देखने को मिलती हैं। सामाजिक संरचना में यह विभिन्नताएं एक बार फिर संस्कृति और अर्थव्यवस्था के बीच के घनिष्ठ संबंध को प्रदर्शित करती हैं। इसके साथ ही इनसे यह भी पता चलता है कि इन दो जातीय समूहों का मुक्ति आंदोलन के संदर्भ में भिन्न-भिन्न रवैया क्यों है।

यह भी सही है कि मुक्ति आंदोलन में संस्कृति की भूमिका निर्धारित करने के प्रयास में सामाजिक और जातीय समूहों की विविधता से थोड़ी दिक्कत पैदा होती है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि मुक्ति संघर्ष की निर्णायक भूमिका के प्रति हमें आंख नहीं मूंदनी चाहिए-उस समय भी जब ऐसा लगता हो कि वर्ग संरचना विकास की भ्रूणावस्था मैं है। औपनिवेशिक प्रभुत्व के अनुभव से हमें पता चलता है कि उपनिवेशवादियों ने शोषण की प्रक्रिया को ज्यादा से ज्यादा असरदार बनाने के प्रयास में गुलाम देशों की जनता के सांस्कृतिक जीवन का दमन करने की न केवल एक प्रणाली विकसित की बल्कि आबादी के एक हिस्से को सांस्कृतिक अलगाव में भी डाल दिया। यह काम उन्होंने या तो देशज लोगों को अपनी संस्कृति में समाहित करके किया अथवा आम जनता और देशज अभिजात्य वर्ग के बीच एक सामाजिक खाई के जरिए पूरा किया। समाज को विभाजित करने अथवा विभाजन को और असरदार बनाने की प्रक्रिया के फलस्वरूप आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा खासतौर से शहरी अथवा ग्रामीण निम्न पूंजीपति वर्ग (पेटीबुर्जुआ) उपनिवेशवादियों की मानसिकता को अपनाने में लग गया और उसने खुद को अपने ही देश की जनता के मुकाबले सांस्कृतिक दृष्टि से श्रेष्ठ समझ लिया तथा अपने देशवासियों के सांस्कृतिक मूल्यों की या तो अवहेलना करने लगा या उन्हें हिकारत की दृष्टि से देखने लगा। उपनिवेशवादी संस्कृति से प्रभावित बुद्धिजीवियों के एक बहुत बड़े हिस्से में यह बात देखी जाती है। ऐसे बुद्धिजीवियों की सामाजिक स्थिति को और मजबूत बनाने के लिए उपनिवेशवादियों ने इनको मिलने वाली सुविधओं में जो वृद्धि की उससे मुक्ति आंदोलन के प्रति उनके नजरिए में भी जबर्दस्त तब्दीली आई।

चाहे जो हो हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि जब राजनीतिक स्वाधीनता की संभावनाएं दिखाई दे रही हों तो बड़ी संख्या में संघर्ष की धारा में वे व्यक्ति आ सकते हैं जो अभी औपनिवेशिक संस्कृति के प्रभाव से अछूते हैं। ऐसे लोग अपनी शिक्षा, वैज्ञानिक अथवा तकनीकी ज्ञान के आधार पर मुक्ति आंदोलन में उच्च स्थान भी प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी अवस्था में सांस्कृतिक और राजनीतिक दोनों धरातलों पर सतर्कता बहुत जरूरी है। क्योंकि अन्य क्षेत्रों की ही तरह मुक्ति आंदोलन के संदर्भ में भी देखें तो हर चीज जो चमक रही है, जरूरी नहीं कि वह सोना ही हो। बहुत सारे ऐसे राजनीतिक नेता-जिनको काफी ख्याति मिल चुकी हो-हो सकता है कि वे सांस्कृतिक दृष्टि से औपनिवेशिक मानसिकता के शिकार हों। औपनिवेशिक प्रभुत्व के अधीन इस वर्ग (परंपरागत चीफ, अभिजन, धर्मिक नेता) का राजनीतिक प्राधिकार बहुत नाममात्र का होता है और व्यापक जनसमुदाय को इस बात की जानकारी रहती है कि वास्तविक प्राधिकार औपनिवेशिक प्रशासकों के पास है। तो भी सत्ताधरी वर्ग बुनियादी तौर पर अपना सांस्कृतिक प्रभुत्व जनता पर बनाए रखता है और इसके बहुत महत्वपूर्ण राजनीतिक निहितार्थ होते हैं।

यह एक तथ्य है कि उपनिवेशवादी शासक, जो सामाजिक पिरामिड के आधार में स्थित जनता की सांस्कृतिक गतिविधियों का दमन करता है, पिरामिड के शीर्ष पर स्थित सत्ताधरी वर्ग के सम्मान और संस्कृति की रक्षा में लगा रहता है और उसको मजबूत बनाता है। वह उपनिवेशवादी कबीले के ऐसे सरदारों को प्रतिष्ठित पदों पर लाता है जो उसका समर्थन करते हैं और जिनको व्यापक जन समुदाय की भी थोड़ी-बहुत स्वीकृति मिली रहती है। कबीले के इन सरदारों को कुछ भौतिक सुविधाएं प्रदान की जाती है जैसे उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जाएगी, उनके शासन के लिए एक इलाका निर्धारित कर दिया जाएगा, धार्मिक नेताओं के साथ उनके उद्भावनापूर्ण संबंध विकसित होने में मदद की जाएगी, उनके लिए मस्जिदें आदि बनवा दी जाएंगी आदि-आदि। इसके अलावा उन्हें वे सारी आर्थिक और सामाजिक सुविधाएं भी प्राप्त होंगी जो सत्ताधारी वर्ग को सुलभ हैं। ऐसा होने के बावजूद वे समूह के रूप में अथवा व्यक्तिगत तौर पर मुक्ति आंदोलन के साथ नहीं जुड़ेंगे, ऐसा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अनेक परंपरागत और धार्मिक नेता मुक्ति संघर्ष के शुरुआती दिनों में इसमें शामिल हुए हैं और इस प्रकार उन्होंने मुक्ति आंदोलन को मजबूत करने में योगदान दिया है।

लेकिन यहां फिर सतर्कता बरतनी होती है। सामान्य तौर पर औपनिवेशिक प्रभुत्व का मुकाबला करने के लिए और विशिष्ट स्थिति में अपने देश के संदर्भ में जिन बातों का उल्लेख किया गया है, उस पर ध्यान दें तो हम देखेंगे कि उत्पीड़क सत्ताधारी वर्ग में कुछ उच्च अधिकारी, कुछ बुद्धिजीवी और ग्रामीण इलाकों में बसे सुविधसंपन्न लोगों के प्रतिनिधि हैं। जब हम मुक्ति आंदोलन के संदर्भ में इनके सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों पर विचार करते हैं तो इसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलू हमारे सामने आते हैं। इन विभिन्न सामाजिक समूहों के व्यवहार में उनके अपने खास वर्ग की भी भूमिका होती है। सुविधसंपन्न वर्ग मुक्ति संघर्ष में किस तरह की भूमिका निभा सकता है अथवा उसका सकारात्मक योगदान क्या हो सकता है इसके मूल्यांकन में कमी किए बगैर मुक्ति आंदोलन के संचालकों को चाहिए कि वे अपने कार्य का आधार लोक संस्कृति को बनावें। औपनिवेशिक दमन का मुकाबला सांस्कृतिक हथियार से किया जा सकता है। मुक्ति आंदोलन के पहले चरण को शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के किसानों और मजदूरों की सांस्कृतिक गतिविधियों से शुरू किया जा सकता है। मुक्ति आंदोलन तथा उस जनता के बीच, जिसका यह आंदोलन प्रतिनिधित्व करता है, राजनीतिक और नैतिक एकता का अर्थ है उन तमाम सामाजिक समूहों के बीच सांस्कृतिक एकता हासिल करना जो किसी भी मुक्ति संघर्ष के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह एकता एक तरफ तो परिवेशजन्य यथार्थ एवं जनता की बुनियादी समस्याओं और आकांक्षाओं के बीच पूरी तरह तादात्म्य स्थापित करके तथा दूसरी तरफ संघर्ष में शामिल विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच प्रगतिशील सांस्कृतिक पहचान के जरिए हासिल की जा सकती है।

अपने विकास के साथ मुक्ति आंदोलन को चाहिए कि वह विविध हितों के बीच समरसता पैदा करे, अंतर्विरोधों को हल करे तथा मुक्ति और प्रगति की तलाश में समान उद्देश्यों को परिभाषित करे। अगर आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा इन उद्देश्यों को पूरी तरह अपने मन में बैठा लेता है और तमाम कठिनाइयों एवं कुर्बानियों के बावजूद अपने संकल्प पर अडिग रहता है तो यह बहुत बड़ी राजनैतिक और नैतिक विजय कही जाएगी। यह एक ऐसी सांस्कृतिक उपलब्धि होगी जिसका मुक्ति आंदोलन के विकास और इसके सफल होने में निर्णायक महत्व है।

उत्पीड़कों की संस्कृति और उत्पीड़न के शिकार लोगों की संस्कृति के बीच जितना ही अधिक अंतर होगा उतना ही ज्यादा इस विजय की संभावना तेज हो जाएगी। इतिहास ने यह साबित कर दिया है कि किसी भी विजेता को उस देश की जनता पर शासन करना कम कठिन होता है जिस देश की जनता की संस्कृति और विजेता की संस्कृति काफी हद तक मिलती-जुलती है।

उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा अफ्रीका में जो ढेर सारी गंभीर गलतियां की गयीं उनमें से एक गलती यह थी कि उसने अफ्रीकी जनता की सांस्कृतिक शक्ति को या तो नजरअंदाज किया या उसे कम करके आंका। यह प्रवृत्ति पुर्तगाल शासित उपनिवेशों में खासतौर से देखने में मिली-यहां उपनिवेशवादी ताकतें अफ्रीकी लोगों के सांस्कृतिक मूल्यों के अस्तित्व को नकार कर ही संतुष्ट नहीं हुई बल्कि उन्होंने हर तरह की राजनैतिक गतिविधियों में भी भाग लेने से अफ्रीकियों को रोके रखा। पुर्तगाली उपनिवेशों की जनता द्वारा किये गये राजनीतिक सशस्त्र प्रतिरोध को अफ्रीका के अन्य क्षेत्रों की तरह ही साम्राज्यवादियों ने अपनी तकनीकी श्रेष्ठता से कुचल दिया और उसके इस काम में कुछ देशी सत्ताधरी वर्गों ने मदद पहुंचाई। अभिजात्य वर्ग के लोगों में से उन लोगों को एकदम नष्ट कर दिया गया जो जनता के इतिहास और जनता की संस्कृति के प्रति निष्ठावान थे। पूरी की पूरी आबादी को मौत के घाट उतार दिया गया। हर तरह के अपराध और शोषण का सहारा लेकर उपनिवेशवादी साम्राज्य स्थापित किये गये लेकिन जनता के सांस्कृतिक प्रतिरोध को नष्ट नहीं किया जा सका। उपनिवेशवादियों से हाथ मिलाकर काम कर रहे कुछ सामाजिक समूहों द्वारा छल किये जाने के बावजूद अफ्रीकी संस्कृति हर तरह के तूफानों को झेलती हुई अपनी अस्मिता को बचाये रख सकी। इसने गांवों में, जंगलों में और उपनिवेशवाद के शिकार लोगों की अगली पीढ़ी के दिलों में शरण ली।

जिस प्रकार कोई बीज उन अनुकूल स्थितियों का इंतजार करता है जिसमें वह अपनी वंश परंपरा को आगे ले जाने और उसे विकसित करने के लिए अंखुए का रूप ले सके, उसी प्रकार अफ्रीकी जनता की संस्कृति राष्ट्रीय मुक्ति के लिए चल रहे संघर्ष के दौरान फिर प्रस्पफुटित हो रही है। इन संघर्षों का कोई भी स्वरूप क्यों न हो, इन्हें सफलता मिले अथवा विफलता और संघर्ष का दौर लंबा हो या कम, ये इस उपमहाद्वीप के इतिहास में स्वरूप और सारतत्व दोनों की दृष्टि से एक नये युग की शुरुआत कर रहे हैं और अफ्रीकी जनता के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण सांस्कृतिक तत्व का संचार कर रहे हैं। संस्कृति इतिहास की उपज है और यह प्रत्येक क्षण में समाज की तथा निजी रूप में एवं सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य की भौतिक और आत्मिक सच्चाई को अभिव्यक्त करती है। प्रत्येक संस्कृति में कुछ बुनियादी एवं गौण तत्व होते हैं, इसमें शक्ति भी होती है और कमजोरी भी, इसमें खूबियां भी होती हैं और खामियां भी, इसके सकारात्मक पहलू भी होते हैं और नकारात्मक भी तथा इसमें प्रगतिशील तत्व भी होते हैं और जड़ता पैदा करने वाले तथा पीछे ले जाने वाले तत्व भी। इस दृष्टि से अगर हम देखें तो हम यह भी पाते हैं कि संस्कृति एक समाजिक यथार्थ है जो मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा से परे है। इस पर उसकी चमड़ी के रंग अथवा उसकी आंखों के आकार का कोई असर नहीं पड़ता।

जैसा कि हमने पहले कहा मुक्ति आंदोलन को चाहिए कि वे अपने क्रियाकलापों को जनता की संस्कृति की सम्यक जानकारी पर आधारित करें और उनके सांस्कृतिक तत्वों के वास्तविक महत्व को तथा प्रत्येक सामाजिक समूह के विविध सांस्कृतिक स्तरों को समझे। मुक्ति आंदोलन को इस योग्य भी होना चाहिए कि वह जनता के सांस्कृतिक मूल्यों की बुनियादी और गौण बातों को जाने, इसके सकारात्मक और नकारात्मक, प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी, शक्तिशाली और कमजोर पहलुओं को पहचाने। मुक्ति आंदोलन के नेताओं को इस बात का जितना ही ज्यादा एहसास होगा कि मुक्ति का मतलब केवल राजनीतिक आजादी हासिल करना नहीं है बल्कि उत्पादक शक्तियों को समग्र रूप से स्वतंत्र कराना है तथा लोगों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रगति का निर्माण करना है, वे उतनी ही शिद्दत के साथ मुक्ति संघर्ष के चौखटे के अंदर संस्कृति के मूल्यों को विश्लेषित करने की जरूरत महसूस करेंगे। सांस्कृतिक मूल्यों के ऐसे विश्लेषण की जरूरत उस समय और भी तीव्र हो जाती है जब औपनिवेशिक दमन का मुकाबला करने के लिए मुक्ति आंदोलन को एक सशक्त राजनीतिक संगठन के नेतृत्व में जनता को लामबंद करना पड़ता है ताकि राष्ट्रीय मुक्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ा जा सके।
साभार - हाशिया ब्लॉग

आइये- दुनिया को आज़ाद कराने के लिये लडें



डिक्टेटर का समापन भाषण
चार्ली चैप्लिन
चार्ली चैप्लिन ने लोगों को ऎसे दौर में हसना सिखाया जब दुनिया विश्वयुद्ध और फासीवाद के दौर में जी रही थी. ग्रेट डिक्टेटर फिल्म १९४० में बनी जिसमे चर्ली चैप्लिन ने हिटलर की भूमिका निभाते हुए एक भाषण दिया था. वह भाषण ऎसा लगता है मानों तब से दुनिया ठहरी हुई हो, बस चार्ली चैप्लिन हमारे बीच से गायब हो गये हों.

मुझे खेद है लेकिन मैं शासक नहीं बनना चाहता. ये मेरा काम नहीं है. किसी पर भी राज करना या किसी को भी जीतना नहीं चाहता. मैं तो किसी की मदद करना चाहूंगा- अगर हो सके तो- यहूदियों की, गैर यहूदियों की- काले लोगों की- गोरे लोगों की.
हम सब लोग एक दूसरे लोगों की मदद करना चाहते हैं. मानव होते ही ऎसे हैं. हम एक दूसरे की खुशी के साथ जीना चाहते हैं- एक दूसरे की तकलीफों के साथ नहीं. हम एक दूसरे से नफ़रत और घृणा नहीं करना चाहते. इस संसार में सभी के लिये स्थान है और हमारी यह समृद्ध धरती सभी के लिये अन्न-जल जुटा सकती है.
“जीवन का रास्ता मुक्त और सुन्दर हो सकता है, लेकिन हम रास्ता भटक गये हैं. लालच ने आदमी की आत्मा को विषाक्त कर दिया है- दुनिया में नफ़रत की दीवारें खडी कर दी हैं- लालच ने हमे ज़हालत में, खून खराबे के फंदे में फसा दिया है. हमने गति का विकास कर लिया लेकिन अपने आपको गति में ही बंद कर दिया है. हमने मशीने बनायी, मशीनों ने हमे बहुत कुछ दिया लेकिन हमारी माँगें और बढ़ती चली गयीं. हमारे ज्ञान ने हमें सनकी बना छोडा है; हमारी चतुराई ने हमे कठोर और बेरहम बना दिया. हम बहुत ज्यादा सोचते हैं और बहुत कम महसूस करते हैं. हमे बहुत अधिक मशीनरी की तुलना में मानवीयता की ज्यादा जरूरत है, इन गुणों के बिना जीवन हिंसक हो जायेगा.
“हवाई जहाज और रेडियो हमें आपस में एक दूसरे के निकट लाये हैं. इन्हीं चीजों की प्रकृति आज चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है- इन्सान में अच्छई हो- चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है- पूरी दुनिया में भाईचारा हो, हम सबमे एकता हो. यहाँ तक कि इस समय भी मेरी आवाज़ पूरी दुनिया में लाखों करोणों लोगों तक पहुँच रही है- लाखों करोडों हताश पुरुष, स्त्रियाँ, और छोटे-छोटे बच्चे- उस तंत्र के शिकार लोग, जो आदमी को क्रूर और अत्याचारी बना देता है और निर्दोष इंसानों को सींखचों के पीछे डाल देता है; जिन लोगों तक मेरी आवाज़ पहुँच रही है- मैं उनसे कहता हूँ- “निराश न हों’. जो मुसीबत हम पर आ पडी है, वह कुछ नहीं, लालच का गुज़र जाने वाला दौर है. इंसान की नफ़रत हमेशा नहीं रहेगी, तानाशाह मौत के हवाले होंगे और जो ताकत उन्होंने जनता से हथियायी है, जनता के पास वापिस पहुँच जायेगी और जब तक इंसान मरते रहेंगे, स्वतंत्रता कभी खत्म नहीं होगी.
“सिपाहियों! अपने आपको इन वहशियों के हाथों में न पड़ने दो- ये आपसे घृणा करते हैं- आपको गुलाम बनाते हैं- जो आपकी जिंदगी के फैसले करते हैं- आपको बताते हैं कि आपको क्या करना चाहिये, क्या सोचना चाहिये और क्या महसूस करना चाहिये! जो आपसे मसक्कत करवाते हैं- आपको भूखा रखते हैं- आपके साथ मवेसियों का सा बरताव करते हैं और आपको तोपों के चारे की तरह इश्तेमाल करते हैं- अपने आपको इन अप्राकृतिक मनुष्यों, मशीनी मानवों के हाथों गुलाम मत बनने दो, जिनके दिमाग मशीनी हैं और जिनके दिल मशीनी हैं! आप मशीनें नहीं हैं! आप इंसान हैं! आपके दिल में मानवाता के प्यार का सगर हिलोरें ले रहा है. घृणा मत करो! सिर्फ़ वही घृणा करते हैं जिन्हें प्यार नहीं मिलता- प्यार न पाने वाले और अप्राकृतिक!!
“सिपाहियों! गुलामी के लिये मत लडो! आज़ादी के लिये लडो! सेंट ल्यूक के सत्रहवें अध्याय में यह लिखा है कि ईश्वर का साम्राज्य मनुष्य के भीतर होता है- सिर्फ़ एक आदमी के भीतर नहीं, नही आदमियों के किसी समूह में ही अपितु सभी मनुष्यों में ईश्वर वास करता है! आप में! आप में, आप सब व्यक्तियों के पास ताकत है- मशीने बनाने की ताकत. खुशियाँ पैदा करने की ताकत! आप, आप लोगों में इस जीवन को शानदार रोमांचक गतिविधि में बदलने की ताकत है. तो- लोकतंत्र के नाम पर- आइये, हम ताकत का इस्तेमाल करें- आइये, हम सब एक हो जायें. आइये हम सब एक नयी दुनिया के लिये संघर्ष करें. एक ऎसी बेहतरीन दुनिया, जहाँ सभी व्यक्तियों को काम करने का मौका मिलेगा. इस नयी दुनिया में युवा वर्ग को भविष्य और वृद्धों को सुरक्षा मिलेगी.
“इन्हीं चीजों का वायदा करके वहशियों ने ताकत हथिया ली है. लेकिन वे झूठ बोलते हैं! वे उस वायदे को पूरा नहीं करते. वे कभी करेंगे भी नहीं! तानाशाह अपने आपको आज़ाद कर लेते हैं लेकिन लोगों को गुलाम बना देते हैं. आइये- दुनिया को आज़ाद कराने के लिये लडें- राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़ डालें- लालच को ख़्त्म कर डालें, नफ़रत को दफन करें और असहनशक्ति को कुचल दें. आइये हम तर्क की दुनिया के लिये संघर्ष करें- एक ऎसी दुनिया के लिये, जहाँ पर विज्ञान और प्रगति इन सबको खुशियों की तरफ ले जायेगी, लोकतंत्र के नाम पर आइए, हम एकजुट हो जायें!
हान्नाह! क्या आप मुझे सुन रही हैं?
आप जहाँ कहीं भी हैं, मेरी तरफ देखें! देखें, हन्नाह! बादल बढ़ रहे हैं! उनमे सूर्य झाँक रहा है! हम इस अंधेरे में से निकल कर प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं! हम एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं- अधिक दयालु दुनिया, जहाँ आदमी अपनी लालच से ऊपर उठ जायेगा, अपनी नफ़रत और अपनी पाशविकता को त्याग देगा. देखो हन्नाह! मनुष्य की आत्मा को पंख दे दिये गये हैं और अंततः ऎसा समय आ ही गया है जब वह आकाश में उड़ना शुरु कर रहा है. वह इंद्रधनुष में उड़ने जा रहा है. वह आशा के आलोक में उड़ रहा है. देखो हन्नाह! देखो!’
   

शुरु भईल हक के लड़ईया :

शुरु भईल हक के लड़ईया, कि चला तुहूं लड़ै बरे भईया
कब तक तू सुतबा हो मुंद के नयनवां हो मूंद के नयनवां
कब तक तू ढोइबा हो सुख के सपनवां हो सुख के सपनवां
फ़ूटल बा ललकी किरिनिया, कि चला ……
शुरु भईल हक……


तोहरे पसिनवां से अन्न-धन्न सोनवां हो अन्न-धन्न सोनवां
तोहरा के चूसि-चूसि बढ़ै उनके तोनवां, हो बढ़ै उनके तोनवां
तोहके बा मुठ्ठी भर मकईया, कि चला ……..
शुरु भईल हक……

तोहरे लरिकवन के फ़ौज बनावै हो फ़ौज बनावै
उनके बनुकिया देके तोहरे पे चलावे हो तोहरे पे चलावे
जेल के बतावे कचहरिया, कि चला………
शुरु भईल हक……

तोहरे अंगुरिया पे दुनिया टिकलबा हो दुनिया टिकलबा
बखरा में तोहरे नरका परल बा हो नरका परल बा
उठ भहरावे के ई दुनिया , कि चला…..
शुरु भईल हक……

जनबल बा तोहरे खून के फ़उजिया हो खून के फ़उजिया
खेत कारखनवा के ललकी फ़उजिया हो ललकी फ़उजिया
तोहके बोलावे दिन रतिया, कि चला…..
शुरु भईल हक……

– शम्भू जी


साभार :- परिसर

A Critique of the Kabir Kala Manch Defence Committee :



by P. A. Sebastian

The Kabir Kala Manch Defence Committee is a challenge to the traditions of the civil liberties and democratic rights movement built on the shoulders of Dr. Ram Manohar Lohia and Jayprakash Narayan.
Co-option has always been a feature of the political activities carried out by dominant powers, who have the ambition of conquering the world. Co-option recruits people from opposition camps and keeps them in their place.
This characteristic of co-option is seen in the Middle East. The people of the Middle East had and still have a number of dictators adopting pro-American policies. Then, the opposition against them started to grow. In the course of time, they started to become old and political liabilities, rather than assets for their cultivators. Egypt and Mubarrak constituted a classical example. However, at some point of time, we were told by the western powers and their media that there was a revolution in Egypt by radical and leftist forces, who acted decisively to replace Mubarrak with a popular regime. The world media refers to these events as the Arab spring and revolution. However, we all know now what happened in Egypt. No change has taken place. There remains a pro-American regime as it ever was, probably, more repressive than in the past. What has happened is co-option of the opposition.
India has been a participant in this global effort. What recently happened in the case of the Pune based Kabir Kala Manch (KKM) was ideologically of a similar kind as the movements in the Middle East.
Some members of KKM wanted to surrender. Surrenders happen wherever there is rebellion and revolution – there is nothing unusual in them. What is unusual, however, is that a group of people in Mumbai calling themselves the “KKM Defence Committee” (KKMDC) facilitated the surrender of these members of KKM. That is, KKMDC facilitated negotiations with the government, negotiations with the Chief Minister himself, arranged the place of surrender, the method of surrender, the place of detention, and how the government will proceed against them. Such actions cannot be called political activity defending the original aims of KKM. Genuine defence committees have not functioned in this manner historically; government agents function in this way to co-opt political opponents. Will the members of the Kabir Kala Manch Defence Committee ever say that there should have been a defence committee to persuade Bhagat Singh and his comrades to surrender through negotiation? Such activities and statements negate the very existence of revolt and revolution. The KKMDC, as a justification, claims that whatever they have done is to prevent torture. In this context, one must remember life is the ultimate price which revolution pays, in the absence of which, there will be no revolution. Nevertheless, the members of the KKMDC call themselves the defenders of revolt and rebellion.
It may be noted that funded organisations are playing a major role in this phenomenon of co-option at present. For instance, district or state units of some civil liberties organizations are linked to NGOs or funded organisations. Just in one state, eight out of sixteen district units of a well-respected civil liberties organization have been directly recruited and paid by a particular, prominent funded organisation based in Delhi.
The Civil Liberties movement has a long history, both formal and informal. The formal history starts from 1936 with Rabindranath Tagore as the president of the Civil Liberties Union of India. Other members of this movement were well known freedom fighters like Sarojini Naidu, Jawaharlal Nehru and Dr. Ram Manohar Lohia. They had said, in no uncertain terms, that the Civil Liberties Union existed to fight against the government whenever the rights of the people were suppressed, not to crush the opposition however severe their differences might have been. No Civil Libertarian in India ever said that Bhagat Singh should have been hanged even though his methods and ideologies were fundamentally different from the ideologies of Rabindranath Tagore, Sarojini Naidu, Jawaharlal Nehru or Dr. Lohia. The Civil Liberties Union of India ended in 1946 when Nehru became the interim Prime Minister of India. It was claimed that as they were then in power, there was no need for a particular civil liberties organisation.
Later, the Peoples’ Union of Civil Liberties and Democratic Rights (PUCL & DR) was formed during the Emergency. The person who played the most prominent role in its founding was Jayprakash Narayan (JP). It is worth remembering that PUCL & DR were formed underground to fight the undemocratic acts of Indira Gandhi, Sanjay Gandhi and their cronies who ruled India. It is known to everybody that JP was never a communist in his political life, nevertheless, the first major issue that the PUCL & DR took up, immediately after the lifting of emergency, was to constitute a judicial enquiry (led by V. M. Tarkunde) to inquire into the large number of “encounter” deaths. The inquiry was based on facts and proved beyond a doubt that all encounters were false, fabricated and stage-managed. Here no reference is made to a good number of CL&DR organisations which were formed in the wake of what is called the Naxalbari movement.
What is happening in Mumbai now in the name of KKMDC is something outside of this Civil Liberties tradition.
It may be noted that KKM was not a front organisation of CPI (Maoist). In spite of that, the CPI (Maoist) played an important role in making the KKM the popular political-cultural organisation it later became. Among the people who played that role were Anuradha Ghandi and other persons of her stature. There may be a few thousand people in Maharashtra alone who can sing, dance and perform as well as or even better than the members of KKM. Nevertheless, nobody knows them; if the members of KKM are known all over India today, it is thanks to their politics influenced by CPI (Maoist).
This trend of co-option has dangerous consequences. The emergence of committees like KKMDC are a challenge that the civil liberties and democratic rights movement faces. It therefore needs to be taken up as a challenge and ideologically fought with so that such efforts of co-option are defeated.
   
                                                                                 :   from sanhati

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

जेल से भेजी मारुती मजदूरों ने अपील:

समर्थन में आज से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू 

मारुती कंपनी प्रबंधन, सरकार और प्रशासन के दमन के खिलाफ 24 मार्च से हरियाणा के कैथल जिले में चल रहा अनिश्चितकालीन धरना आज से आमरण अनशन में बदल गया है. संघर्षरत मज़दूरों ने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल के पक्ष में व्यापक समर्थन की अपील की है. इस मौके पर हम जेल में बंद 147 मजदूरों की और से जारी पत्र को प्रसारित कर रहे हैं...
हम मारुति सुजुकी के वो मजदूर है जिनको 18-7-2012 की दुर्घटना का इल्जाम लगाकर बिना किसी न्यायिक जांच के जेल में डाल दिया गया हैं. हम 147 मजदूर अभी भी गुडगाँव सेंट्रल जेल के सलाखों के पीछे बंध हैं. जुलाई के बाद लगभग 2500 पक्के और कच्चे कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया. पिछले 8 महीनों से हम हरियाणा और केन्द्रीय सरकार के बहुत सारे उच्च अधिकारियों, हरियाणा राज्य के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री जी को भी कई बार अपील कर चुके हैं.
लेकिन न तो हमारी कहीं सुनाई हो रही है, न ही हमें जमानत दी जा रही है. और तो और, जो हरियाणा पुलिस ने चार्जशीट कोर्ट में पेश की है, उसमें किसी गवाह का नाम नही है और वह आधी अधूरी है. हमारा लोकतान्त्रिक अधिकारो का हनन लगातार हो रहा हैं, और कानून को कंपनी मालिकों के स्वार्थ में व्यवहार किया जा रहा हैं. इस दौरान बहत से कर्मचारियों ने अपने परिवार के सदस्य के साथ-साथ बहत कुछ खो दिया है. काफी मजदूर ऐसे भी है जिनके माता-पिता नहीं हैं और पुरे परिवार का पालन पोषण का भार उन्ही पर है.
काफी ऐसे भी साथी हैं, जब उन्हें जेल में डाला गया, तब उनकी पत्नियाँ गर्भवती थी. उनकी डिलीवरी के समय भी कर्मचारियों को न तो जमानत दी गयी, न ही पे-रोल पे छुट्टी दी गयी और न ही पे-रोल कस्टडी में ही भेजा गया. परिवार में अकेली होने के कारण व पति के जेल में होने के कारण, पता नहीं किन परिस्थितियों में उनकी डिलीवरी हुई है. इसके हम निचे कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है:-
हमारे एक साथी सुमित S/O स्वर्गीय श्री छत्तर सिंह के घर में सुमित और उनकी पत्नी के अलावा कोई अन्य पारिवारिक सदस्य नहीं है. लेकिन फिर भी दिनांक 6.12.2012 को उनकी पत्नी की डिलीवरी गुडगाँव के एक अस्पताल में हुई और उनकी देखभाल के लिए सुमित को कोई भी राहत प्रदान नहीं की गई.
हमारे एक साथी विजेंद्र S/O स्वर्गीय श्री दलेल सिंह अपने परिवार का पालन पोषण करनेवाला अकेला सदस्य है. उसके घर में उसकी पत्नी व बिमार माँ है. उसकी पत्नी की डिलीवरी 10.01.2013 को झज्जर के एक अस्पताल में हुई. विजेंद्र के माँ के बिमार होने के कारण उसकी पत्नी कि डिलीवरी के समय देखभाल करनेवाला कोई नहीं था. लेकिन फिरभी विजेंद्र को पत्नी के देखभाल के लिए डिलीवरी के समय कोई राहत नहीं दी गई.
हमारे साथी रामबिलास S/O स्वर्गीय श्री सीलक राम की दादीमा 26.02.2013 को रामबिलास के वियोग में बिमार हो कर स्वर्ग सिधार गई, क्योकि वह उसकी दादीमा का बहुत लाडला था. और तो और उसे दाह-संस्कार में सामिल होने या दादीमा के अंतिम दर्शन करने के लिए पेरोल कस्टडी में भी नहीं ले जाया गया. कुछ ही दिनों के बाद जब उसकी पत्नी कि डिलीवरी होनी थी तो उसकी जमानत या छुट्टी के लिए याचिका लगाई गई तब भी उसे कोई राहत नहीं दी गई. इससे उसके ऊपर बड़ा मानसिक आघात हुआ है.
हमारे एक साथी प्रेमपाल S/O श्री छिद्दीलाल के उपर पुरे परिवार के पालन पोषण का भार है, वह जब जेल में आया था तब उसके परिवार की रोजी-रोटी उसी के बलबूते पर टिकी हुई थी. परन्तु उसके जेल में आने के बाद उसकी इकलौती बेटी जो मात्र दो साल की थी, जो अपने पापा के वियोग में बीमार होकर पापा-पापा करते हुए भगवान को प्यारी हो गई. ये जख्म अभी हरा ही था कि तभी कुछ दिन बाद प्रेमपाल की माँ बेटे के वियोग में व अपनी लाडली पोती के वियोग में बीमार होकर स्वर्ग सिधार गई. हद तो तब हो गई जब उसकी एक सप्ताह कि छुट्टी भी ख़ारिज कर दी गई व उसे मात्र एक घंटे के लिए दाह-संस्कार होने के अगले दिन पे-रोल कस्टडी में भेजा गया. जबकि गुडिया व माताजी के देहांत के दुःख में घर में अकेली उसकी पत्नी भी बीमार होने के कारण अस्पताल में दाखिल करवानी पड़ी जो अभी भी बिमार है तथा उसकी देखभाल करनेवाला कोई नहीं है. और इस कारण प्रेमपाल बहुत अधिक मानसिक दबाव में है.
हमारे एक साथी राहुल S/O श्री विनोद रतन जो घर में अपने माँ-बाप का एक इकलौता बेटा है व उसकी एक ही बहन है. उसकी बहन कि शादी दिनांक 16.11.2012 को हुई. परन्तु उसे कस्टडी में भी अपनी बहन के शादी के कन्यादान के लिए नहीं भेजा गया जिसके कारण घर की इकलौती बेटी की शादी होते हुए भी घर में मातम जैसा माहौल रहा और राहुल मानसिक दबाव में है.
हमारे एक साथी सुभाष S/O श्री लाल चंद जो कि अपनी दादीमा का बहुत लाडला था. जब वह जेल में आया तो उसके वियोग में उसके दादीमा खाना-पीना छोड़ दिया व कुछ दिन में ही अपने पोते को याद करते हुए स्वर्ग सिधार गई. परन्तु सुभाष को दाहसंस्कार या अंतिम दर्शन के लिए पे-रोल कस्टडी में भी नहीं भेजा गया.
ऐसी और कितनी ही दुख भरी घटनाएँ है, जिन्हें लिखते लिखते एक पूरी किताब बन जाये .
हमारे बारे में: परिचय, परिवार, नौकरी
हम सभी किसान या मजदूरों के बच्चे हैं. माँ-बाप ने हमे बड़ी मेहनत से खून-पसीना एक करके 10वी-12वी या ITI शिक्षा दिलवाई व इस लायक बनाया कि इस जीवन में कुछ बन सके व अपने परिवार का सहारा बन सके.
हम सभी ने कंपनी द्वारा भर्ती प्रक्रिया में लिखित व् मौखिक परीक्षायों को पास करके व् कंपनी की जो जो भी नियम व शर्ते थी, उनपर खरे उतर कर मारुति कंपनी को ज्वाइन किया. जोइनिंग करने से पहले, कंपनी ने सभी प्रकार से हमारी जांच करवाई थी, जैसे- घर की थाने तहसील की व क्रीमिनल जांच करवाई गई थी! पिछले समय का हमारा कोई क्रिमिनल रिकार्ड नहीं हैं.
जब हमने कंपनी को ज्वाइन किया तब, कंपनी का मानेसर प्लांट निर्माणाधीन था. हमने अपने कड़ी मेहनत व लगन से अपने भविष्य को देखते हुए, कंपनी को एक नयी उचाई पर ले गए. जब पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी छायी हुई थी, तब हमने प्रतिदिन दो घंटे एक्स्ट्रा टाइम देकर साल में 10.5 लाख गाड़ियों का निर्माण किया था. कंपनी की लगातार बढ़ते मुनाफा का हम ही पैदावार रहे हैं, जबकि आज हमे अपराधी और खूनी ठहराया जा रहा हैं.
हम लगभग सभी मजदूर गरीब मजदूर-किसान परिवारों से हैं जिनकी जीविका हमारी नौकरी पर ही निर्भर हैं. हमनें अपने व अपने परिवार के भविष्य के सपने बुन रखे थे, कि हमारा भी अपना घर होगा. भाई-बहन व बच्चो को अच्छी शिक्षा दिलाएंगे, ताकि उनका भविष्य भी उज्जवल हो सके व माता-पिता जिन्होंने इतने कष्ट उठाकर हमें इस लायक बनाया कि हम अपने पैरों पे खड़े हो सकें, उनका जीवन आरामदायक बनायेंगे.
कंपनी में हमारा हर प्रकार से शोषण हो रहा था, जैसे कि-
किसीको भी तबियत ख़राब होने पर डिस्पेंसरी न जाने देना व बिमारी की हालत में भी पूरा काम करवाना.
यहाँ तक कि टॉयलेट भी नहीं जाने दिया जाता था. केवल लांच या टि-टाइम में ही जाने दिया जाता था.
अधिकारीयों का कर्मचारियों के साथ भद्दा व्यवहार व गालिया देना और कभी कभी तो दंड देने के लिए थप्पड़ मारना व मुर्गा बना देना.
यदि किसी कर्मचारी के साथ या उसके परिवार के किसी सदस्य के साथ दुर्घटना या कोई समस्या होने पर या यहाँ तक की किसी सम्बन्धी की मृत्यु होने पर यदि कर्मचारी दो या चार दिन की छुट्टी लेता था, तो उसकी सेलरी का आधा भाग, लगभग नौ हज़ार रुपये काट लिया जाता था.
इस प्रकार शोषण के कारण कर्मचारियों को यूनियन कि जरूरत महसूस हुई. कंपनी यूनियन के खिलाफ थी, जिनके कारण हमारी साल 2011 में तीन हड़ताल हुई, जिसमे हमारे तीस साथियों को नौकरी से निकाल दिया गया. लेकिन आख़िरकार हमने फरवरी 2012 में यूनियन का रजि. करवाया, जिसमे हमारी मदद एच.आर. मैनेजर स्वर्गीय श्री अवनिश कुमार देव ने कि थी. हमारी मदद करने के कारण कंपनी देव जी से बहुत खफा हो गई थी, जिसके चलते देव जी ने नौकरी से अपना इस्तीफा दे दिया था. कंपनी ने पोल खुलने के डर से उनका इस्तीफा नामंजूर कर दिया था. यूनियन को तोडवाने व देव जी को रास्ते से हटाने के लिए एक योजनाबंध तरीके से बाउन्सरों व गुंडों को बुलाकर 18 जुलाई 2012 की ‘दुर्घटना’ को अंजाम दिया.
अबकी स्थिति
हम 147 मजदूरों को बिना किसी न्यायिक जाँच किये जेल में डाल दिया गया. हमारा जेल में बंध रहते 8 महीनें से ज्यादा समय हो चुका है. यहाँ जेल में हम बहुत मानसिक दबाव झेल रहे है. कई लोगों को टी. बी., पिलिया व किसीको दौरे पड़ रहे है. और बहुत सारे कर्मचारियों को अन्य काफी बिमारियों का सामना करना पड़ रहा है.
हमारे लगभग सभी परिवारों में कमाने वाले केवल हम थे जो जेल में बंध हैं. जिसके कारण परिवारों को भूखे मरने की नोबत आ गई है. औरोतों और बच्चों कि शिक्षा तक भी छुट गई है जो कि उनका मौलिक अधिकार है. हमारा और हमारे परिवार का भविष्य अंधकार हो गया है. हमारे परिवार के सभी सदस्य भी मानसिक तौर पर बहुत परेशान है. हमे डर हैं कि वो परेशानी के कारण कोई गलत कदम न उठाये.
जेल से बाहर कर्मचारियों कि मौजूदा स्थिति 
147 कर्मचारियों को जेल में डालने के साथ साथ कंपनी ने लगभग 2500 कच्चे और पक्के कर्मचारियों की बिना किसी न्यायिक जाँच के नौकरी से निकाल दिया और वह बेरोजगार हो गए. उनकी परिवारों की स्थिति भी गंभीर है. यहा तक कि उनके पास कोई एक्सपीरियंस डोकुमेंट प्रूफ नहीं है और उनका पूरा कैरियर बर्बाद हो चूका है और उनमे से जो भी कोई हमारी पैरवी करने के लिए आगे आता है, उसे भी उठाकर जेल में डाल दिया जाता है (जैसे साथी ईमान खान के साथ किया गया, जिसका नाम कोई एफ.आई.आर., चार्जशीट या एस.आई.टी. रपट में नहीं था; 65 मजदूरों के ऊपर अभी भी गैर-जमानती वारंट जारी हैं). जेल में बंध कर्मचारियों और बाहर बेरोजगार कर्मचारियों के पास अपनी जीविका चलाने का कोई भी साधन नहीं है, जिसके चलते सभी मानसिक दबाव में है. लेकिन इन हालातों के बीच भी जेल के बहार के हमारे साथी जो न्याय के लिए संघर्ष जारी रखे हैं, उससे हमे इन सलाखों के पीछे भी आशा और उर्जा मिलती हैं. आठ महीने के उपर चल रहे इस संघर्ष में हमे देश के अलग अलग प्रान्त से मजदूर, मेहनतकश और आम जनता के समर्थन के खबरे आती रही हैं, जो भी हमे उम्मीद देती रही हैं.
हम अपनी जाँच की मांगों को लेकर सरकार के लगभग सभी मंत्रियों से मिल चुके हैं. राज्य उद्योग मंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री से भी न्याय की गुहार लगा चुके हैं, लेकिन सरकार हरियाणा के मजदूर-कर्मचारियों की बजाये कंपनी मालिकों की ही तरफ झुकी हुई है. हम अंतिम बार सरकार से अपील करते है कि मरने या मारने के इस मुकाम तक पहुचने से पहले हमारे साथ न्याय हों. साभार- जनज्वार.