रविवार, 23 फ़रवरी 2014

''मेरी पहली कविता ''

    ''चौराहे''

चौराहे
आखिर कहाँ ले जाते है
किस शहर?
किस नगर?
किस गाँव?
या ले जाते हैं उन परिदृश्यों में
जहाँ रोज घटती हैं हृदय विदारक घटनाएं
रोज होती हैं नृशंस हत्यायें,बलात्कार,नरसंहार
रोज बनते हैं नये बाथे,अरवल,खैरलांजी, और मुज़फ्फरनगर !

या फिर ले जाते हैं  वहाँ
जहाँ
सोने,हीरे,लोहे,कोयले,और एलुमिनियम
कि ख़ान
अपने सीने में लिए
धरती सिसकती है
और उजड़ जाते हैं
गाँव के गाँव !

और अंततः
वहाँ भी ले  जाते हैं
जहाँ
अपने अस्तित्व के लिए
लडते-बढ़ते गुरिल्ले
एक नये साम्य समाज का सपना लिए
कर रहें हैं निर्माण
अपनी अलग संस्कृति का
इस तथाकथित सभ्य समाज से इतर
वे गढ़ रहें हैं अपना बस्तर !

                                          -----  ''सिद्धांत''

शनिवार, 9 नवंबर 2013

क्रन्तिकारी कवि धूमिल के ७७ वें जन्म-दिवस पर उनकी दो कविताएं |

रोटी और संसद           
धूमिल
जन्म: 09 नवंबर 1936
निधन: 10 फरवरी 1975
                                               

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है। 

धूमिल की अन्तिम कविता

शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।

लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

हंस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव को भावभीनी श्रद्धांजली !

हिंदी साहित्य के प्रख्यात साहित्यकार , हंस  पत्रिका के संपादक तथा हिंदी साहित्य के स्तम्भ माने जाने वाले राजेंद्र यादव जी का गत सोमवार  निधन हो गया । 
मशाल सांस्कृतिक मंच उनको श्रद्धांजली  अर्पित करता है ।  


राजेंद्र यादव से हमारी उम्मीदें हमेशा बनी रहीं: वरवर राव



राजेंद्र यादव को क्रांतिकारी कवि वरवर राव की श्रद्धांजली

लगभग 30 साल से चले आ रहे हमारे बीच के संवाद को राजेंद्र यादव ने मेरे नाम एक लंबा पत्र लिखकर हमेशा के लिए बंद कर दिया। मैंने उन्हें जवाब दिया था और पिछले दिनों हुए विवाद और बहस में अपने दो पत्रों से अपनी अवस्थिति को सभी के सामने रखा भी था। इसके बाद उन्होंने मुझे एक लंबा पत्र लिखा और ‘हंस’ में संपादकीय भी लिखा। इसे आगामी महीने में ‘अरूणतारा’ में इसका तेलुगू अनुवाद हम प्रस्तुत करेंगे। यह सब इसलिए कि राजेंद्र यादव से हमारी उम्मीदें हमेशा बनी रहीं। हमारे बीच उनका नहीं रहना एक भरी हुई जगह के अचानक ही खाली हो जाने जैसा है, हम सभी के लिए एक क्षति है।

1980 के दशक में जब आंध्र प्रदेश में दमन का अभियान जोरों पर था और सांस्कृतिककर्मी से लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तक को बख्शा नहीं जा रहा था उस समय की ही बात है राजेंद्र यादव ‘हंस’ को लेकर आए। उसी दौरान उन्होंने पत्र व्यवहार से हमसे संपर्क किया। हमारी कविताएं भी उन्होंने प्रकाशित कीं। राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ को प्रेमचंद की परंपरा और विरासत को आगे ले जाने के वादे और नारे के साथ प्रकाशित किया था। शायद उनकी यही दावेदारी उनको विवाद के घेरे में ले आती रही। उनकी यही दावेदारी मुझे उनसे जोड़ती थी और इसी के तहत विवाद भी बनता रहा।

2002 तक आंध्र प्रदेश में राजकीय दमन अपने घिनौने रूप में सामने आ चुका था और गुंडा-गिरोहों द्वारा सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की खुलेआम हत्याएं की जा रही थीं। मेरे ऊपर पर भी इसी तरह के खतरे थे। मैं थोड़े समय के लिए उस दिल्ली आया। 2002 में ही राजेंद्र यादव से पहली मुलाकात हुई। उनकी तमाम विवादास्पद हरकतों के बावजूद मेरी उनसे एक उम्मीद जो पहले से बनी हुई थी, इस मुलाकात के बाद भी कायम रही। हैदराबाद वापस जाने पर उनसे संपर्क नहीं टूटा। यह उन पर मेरा भरोसा ही था कि पिछले दिनों हुए आयोजन के लिए जो निमंत्रण पत्र भेजा उसमें अन्य वक्ताओं का नाम न होने के बावजूद इसे स्वीकार कर लिया। इसके बाद बने विवाद के बाद मुझे उनके साथ संवाद टूट जाने की उम्मीद नहीं थी और उन्होंने लंबा पत्र लिखा भी।

एक साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी पूरे समाज को प्रभावित करता है। राजेंद्र यादव का नहीं रहना हिंदी साहित्य के साथ साथ पूरे साहित्य जगत की भी क्षति है। साहित्य के मोर्चे पर जीवन के अंतिम क्षण तक लगातार सक्रिय रहने वाले मित्र राजेंद्र यादव को विनम्र श्रद्धांजली और नमन!

नफ़स-नफ़स, क़दम-क़दम




नफ़स-नफ़स, क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए
जवाब दर-सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब
जहाँ आवाम के खिलाफ साजिशें हों शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
वहाँ न चुप रहेंगे हम,कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक हमारा हक हमें जनाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब 

               रचनाकार: शलभ श्रीराम सिंह

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

निधन / मन्ना डे

Dhruv Gupt



एक दिन सपनों का राही चला जाए सपनों से आगे कहां !


हिंदी फिल्मों की गंभीर और शास्त्रीय आवाज़ 94-वर्षीय मन्ना डे उर्फ़ प्रबोध चन्द्र डे अब नहीं रहे। गंभीर बीमारी के बाद बैंगलोर के एक अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ दिया। मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद, मुकेश और किशोर कुमार के समकालीन मन्नाडे की अपनी शास्त्रीयता और विविधता के कारण फिल्मी गायन में एक अलग पहचान रही थी। लगभग साठ साल लंबे फिल्म कर्रिएर में मन्ना दा ने सैकड़ों कालजयी गीतों को अपना स्वर दिया। जीवन के अंतिम दिनों तक वे गायन के क्षेत्र में सक्रिय थे। उनके गाए कुछ अमर गीत हैं - ऊपर गगन विशाल, दिल का हाल सुने दिलवाला, ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़, न तो कारवां की तलाश है, ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन, तू है मेरा प्रेम देवता, ये रात भींगी भींगी ये मस्त फिजाएं, प्यार हुआ इक़रार हुआ है प्यार से फिर क्यूं डरता है दिल, आजा सनम मधुर चांदनी में हम-तुम, तू छुपी है कहां मैं तड़पता यहां, तू प्यार का सागर है तेरी एक बूंद के प्यासे हम, ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय, सुर ना सजे क्या गाऊं मैं, चलत मुसाफिर मोह लिया रे, आयो कहां से घनश्याम, नदिया चले चले रे धारा, तुम्हें सूरज कहूं या चंदा, पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, ऐ भाई ज़रा देख के चलो, तुम बिन जीवन कैसे बीता, अब कहां जाएं हम तू बता ऐ ज़मीं, झूमता मौसम मस्त महीना, यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी, ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे, कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या, जीवन से लंबे हैं बंधु इस जीवन के रस्ते, एक चतुर नार करके सिंगार, उमरिया घटती जाए रे, नैन मिले चैन कहां, लागा चुनरी में दाग, किसने चिलमन से मारा नज़ारा मुझे, ऐ मेरी ज़ोहरा ज़बीं, हंसि हंसि पनवा खिअवले बेइमनवा, झनक झनक तोरी बाजे पायलिया आदि। इनकी गंभीर और भावुक आवाज़ में बच्चन जी की 'मधुशाला' सुनना एक अद्वितीय अनुभव है। फिल्म संगीत में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें 2005 में पद्मभूषण से और 2007 में सर्वोच्च फिल्म सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा है।

मन्ना दा को हमारी अश्रुपूर्ण श्रधांजलि ! वे अपने गीतों और हमारी स्मृतियों में सदा जीवित रहेंगे !

पुण्यतिथि / साहिर लुधियानवी


मैं पल दो पल का शायर हूं पल दो पल मेरी जवानी है !

साहिर लुधियानवी को शब्दों और संवेदनाओं का जादूगर कहा जाता है। वे प्रगतिशील चेतना के ऐसे क्रांतिदर्शी शायर थे जिन्होंने जीवन के यथार्थ और कुरूपताओं से बार-बार टकराने के बावजूद शायरी के बुनियादी स्वभाव - कोमलता और नाज़ुकबयानी का दामन नहीं छोड़ा। ग़ज़लों और नज़्मों की भीड़ में भी उन्हें एकदम अलग से पहचाना जा सकता है। अदब के साथ उन्हें हिंदी / उर्दू सिनेमा के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकार का दर्ज़ा भी हासिल है। ढेरों कालजयी फिल्मों, जैसे - धर्मपुत्र, मुनीम जी, जाल, पेइंग गेस्ट, धूल का फूल, हम हिंदुस्तानी, प्यासा, सोने की चिड़िया, फिर सुबह होगी, ताजमहल, मुझे जीने दो, हम दोनों, बरसात की रात, नया दौर, दिल ही तो है, वक़्त, बहू बेगम, शगुन, लैला मजनू, गुमराह, काजल, चित्रलेखा, हमराज़, दाग, इज्ज़त, कभी कभी आदि के लिए लिखे उनके गीत कभी भुलाये न जा सकेंगे। पुण्यतिथि पर इस महान शायर को खेराज़-ऐ-अक़ीदत , उनकी फिल्म 'साधना ' की एक कालजयी नज़्म के साथ !

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा दुत्कार दिया

तुलती है कभी दिनारों में, बिकती है कभी बाजारों में
नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में
ये वो बेईज्ज़त चीज़ है जो बंट जाती है इज्ज़तदारों में
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

मर्दों ने बनाई जो रस्में उनको हक़ का फ़रमान कहा
औरत के जिन्दा जलने को कुर्बानी और बलिदान कहा
अस्मत के बदले रोटी दी और उसको भी एहसान कहा
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

मर्दों के लिए हर ज़ुल्म रवां औरत के लिए रोना भी ख़ता
मर्दों के लिए लाखों सेज़ें औरत के लिए बस एक चिता
मर्दों के लिए हर ऐश का हक़ औरत के लिए जीना भी सज़ा
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

औरत संसार की क़िस्मत है फ़िर भी तक़दीर की हेठी है
अवतार पयम्बर जनती है फ़िर भी शैतान की बेटी है
ये वह बदक़िस्मत मां है जो बेटों की सेज़ पे लेटी है
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....
— with Sahitya Akademi.
 
 
Photo: पुण्यतिथि / साहिर लुधियानवी 
मैं पल दो पल का शायर हूं पल दो पल मेरी जवानी है !

साहिर लुधियानवी को शब्दों और संवेदनाओं का जादूगर कहा जाता है। वे प्रगतिशील चेतना के ऐसे क्रांतिदर्शी शायर थे जिन्होंने जीवन के यथार्थ और कुरूपताओं से बार-बार टकराने के बावजूद शायरी के बुनियादी स्वभाव - कोमलता और नाज़ुकबयानी का दामन नहीं छोड़ा। ग़ज़लों और नज़्मों की भीड़ में भी उन्हें एकदम अलग से पहचाना जा सकता है। अदब के साथ उन्हें हिंदी / उर्दू सिनेमा के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकार का दर्ज़ा भी हासिल है। ढेरों कालजयी फिल्मों, जैसे - धर्मपुत्र, मुनीम जी, जाल, पेइंग गेस्ट, धूल का फूल, हम हिंदुस्तानी, प्यासा, सोने की चिड़िया, फिर सुबह होगी, ताजमहल, मुझे जीने दो, हम दोनों, बरसात की रात, नया दौर, दिल ही तो है, वक़्त, बहू बेगम, शगुन, लैला मजनू, गुमराह, काजल, चित्रलेखा, हमराज़, दाग, इज्ज़त, कभी कभी आदि के लिए लिखे उनके गीत कभी भुलाये न जा सकेंगे। पुण्यतिथि पर इस महान शायर को खेराज़-ऐ-अक़ीदत , उनकी फिल्म 'साधना ' की एक कालजयी नज़्म के साथ !

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया 
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा दुत्कार दिया 

तुलती है कभी दिनारों में, बिकती है कभी बाजारों में 
नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में 
ये वो बेईज्ज़त चीज़ है जो बंट जाती है इज्ज़तदारों में 
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

मर्दों ने बनाई जो रस्में उनको हक़ का फ़रमान कहा 
औरत के जिन्दा जलने को कुर्बानी और बलिदान कहा 
अस्मत के बदले रोटी दी और उसको भी एहसान कहा 
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

मर्दों के लिए हर ज़ुल्म रवां औरत के लिए रोना भी ख़ता 
मर्दों के लिए लाखों सेज़ें औरत के लिए बस एक चिता 
मर्दों के लिए हर ऐश का हक़ औरत के लिए जीना भी सज़ा 
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

औरत संसार की क़िस्मत है फ़िर भी तक़दीर की हेठी है 
अवतार पयम्बर जनती है फ़िर भी शैतान की बेटी है 
ये वह बदक़िस्मत मां है जो बेटों की सेज़ पे लेटी है
औरत ने जनम दिया मर्दों को .....

कविता


 'समझदारों का गीत' 
 
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझ कर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुँजिया नौकरी के लिए
आजादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोजगारी अन्याय से
तेज दर से बढ़ रही है
हम आजादी और बेरोजगारी दोनों के
खतरे समझते हैं
हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं।
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधँसान होती है
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहाँ विरोध ही बाजिब कदम है
हम समझते हैं
हम कदम-कदम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमजोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं

हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
_______________________गोरख पाण्डेय