शनिवार, 18 अगस्त 2012

मारुति ने दी 500 कर्मचारियों की बलि

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21 अगस्त से शुरू होगा उत्पादन
पांच सौ कर्मचारियों की बलि के बाद मारुति मानेसर में तालाबंदी खत्म ! कंपनी ने सख्त कदम उठाते हुए संयंत्र के करीब एक-तिहाई स्थायी कर्मचारियों को बर्खास्त करने का निर्णय किया है. हालांकि प्रबंधन ने दो हजार अस्थाई कर्मचारियों को स्थाई बनाने का भी ऐलान किया है...

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

मानेसर प्रकरण से भारतीय मजदूर आंदोलन की दशा दिशा खूब अभिव्यक्त हो गयी है. अब श्रम कानून बदलने के बाद नजारा क्या होगा, यही देखना बाकी है. मानेसर विवाद से खुले बाजार की अर्थ व्यवस्था में ठेके पर कर्मचारियों को रखने की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगता दिख रहा है क्योंकि कंपनी ने कहा कि वह आगे से ठेके पर रखे गए कर्मचारियों से उत्पादन कार्य नहीं कराएगी और ठेके पर रखे गए सभी 1869 कर्मचारियों की 2 सितंबर से जांच करेगी.
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 इनमें से जो कर्मचारी योग्य होंगे उन्हें कंपनी में नियमित तौर पर रखा जाएगा. साथ ही वह करीब 20 फीसदी कर्मचारियों को लघु अवधि करार के तहत गैर-मुख्य गतिविधियों के लिए नियुक्त करेगी. देश की अग्रणी कार कंपनी मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड ने हरियाणा के मानेसर संयंत्र में एक महीने की तालाबंदी के बाद 21 अगस्त से फिर उत्पादन शुरू किए जाने की घोषणा की है. एक महीने की तालाबंदी के बाद मारुति सुजुकी के मानेसर प्लांट में 21 अगस्त से कामकाज शुरू हो जाएगा.

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि बाजार के मौजूदा नियामकीय ढांचे की समीक्षा की जरूरत है ताकि यह पता लगाया जा सके कि कहीं वह श्रम कल्याण में बिना किसी वास्तविक योगदान के विकास, रोजगार वृद्धि तथा उद्योगों की राह में आड़े तो नहीं आ रहा है. सिंह ने कहा, ‘‘हमारी सरकार अपने कर्मचारियों के हितों की रक्षा को लेकर प्रतिबद्ध है.’’ उन्होंने कहा कि सरकार सभी कामगारों की बेहतरी चाहती है और वह ऐसे प्रावधान बनाने पर विचार कर रही है जिससे अंशकालिक तथा पूर्णकालिक दोनों तरह के काम को इन प्रावधानों की दृष्टि से एक ही तरह से देखा जाएगा. प्रधानमंत्री ने यहां 44वें भारतीय श्रम सम्मेलन में कहा, ‘‘यदि इसके लिए कानून में बदलाव की जरूरत होती है तो हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए और इसे वास्तविक स्वरूप देने के लिए खाका तैयार करने के संबंध में काम शुरू करना चाहिए.’’

मारुति के अध्यक्ष आर सी भार्गव और प्रबंध निदेशक शिंजो नाकानिशी ने गुरुवार को यहां संवाददाता सम्मेलन में इसकी घोषणा की. उन्होंने बताया कि दो हजार अस्थाई कर्मचारियों का स्थायी किया जाएगा. कंपनी ने पिछले माह 18 जुलाई को हिंसक घटनाओं के बाद मानेसर संयंत्र में 21 जुलाई से तालाबंदी कर दी थी. हिंसक घटना में संयंत्र के मानव संसाधन महाप्रबंधक की मृत्यु हो गई थी. भार्गव ने कहा कि कंपनी के समक्ष कर्मचारियों की सुरक्षा सबसे बड़ी चिंता है. प्रबंधन ने कुछ कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए और कदम उठाए हैं.

मारुति सुजूकी जैसे घटनाक्रमों को टालने के लिए श्रम कानूनों में बदलाव की जरूरत है. इसके लिए उद्यमियों के सुझाव भी लिये जाएं. यह बात एनसीआर चैम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष एचपी यादव ने कही. उन्होंने बताया कि श्रम कानूनों में बदलाव और संशोधन के लिए एक संयुक्त समिति का गठन किया जाना चाहिए जिसमें स्थानीय प्रशासन, श्रम विभाग, औद्योगिक संगठनों/चैम्बरों, श्रमिक संगठन तथा स्थानीय लोगों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए. उन्होंने कहा कि फैक्टरी एक्ट 1948 में वर्तमान तथा भविष्य की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर श्रमिक संगठनों तथा चैम्बर / औद्योगिक संगठनों से सलाह लेकर परिवर्तन संशोधन की आवश्यकता है.

चैम्बर की ओर से यह भी सलाह दी गयी कि केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के अनुरूप हरियाणा औद्योगिक शान्ति बल का गठन किया जाना चाहिए. इस सुझाव के ध्यान में रखते हुए मानेसर में हरियाण पुलिस की विशेष बटालियन तैनात की गयी है. चैम्बर की ओर से न्यायिक जाँच की माँग की गयी है क्योंकि लोगों का विश्वास न्यायिक जाँच में ज्यादा होता है. चैम्बर ने मांग की है कि हम सभी को मिलकर मारुति के मानेसर प्लान्ट पुन: शुरू करने के लिए प्रयास करना चाहिये. चैम्बर के अनुसार स्थानीय खुफिया तंत्र को और मजबूत करने की आवश्यकता है. एचएन मकवाना चैम्बर के कार्यकारिणी, सदस्य तथा निदेशक ताईकिशा इण्डिया के अनुसार जापानी कम्पनियां उद्योग को परिवार की तरह चलाती हैं तथा श्रमिकों व प्रबन्धकों में भेदभाव नहीं करती हैं.

मारुति सुजूकी इंडिया जैसी कंपनियों ने अनुबंधित श्रमिकों का खुलकर इस्तेमाल किया है. कंपनी के मानेसर संयंत्र में आधे श्रमिक इसी दर्जे के हैं. इसके बावजूद कंपनियां अक्सर भूल जाती हैं कि उनका सामना इंसानों से है और केवल लागत में कमी करके ही रोजगार के मॉडल को बरकरार नहीं रखा जा सकता. मारुति प्रबंधन के पास भी चेतावनी के तमाम संकेत थे: उदाहरण के लिए, गत 15 महीनों में अनुबंधित और नियमित कर्मियों के वेतन में जबरदस्त अंतर को लेकर शिकायतें सामने आई थीं.

नियमित कर्मचारियों को जहां 16,000 से 21,000 रुपये मासिक वेतन मिलता वहीं उतना ही काम करने वाले अनुबंधित कर्मी को महज 7,000 रुपये. दरअसल, अनुबंधित कामगार मारुति की दास्तान में बार बार सामने आते हैं. पिछले साल की हड़ताल अस्थायी कर्मचारियो को नियमित करने को लेकर ही हुई थी ताकि उनको छुट्टी और चिकित्सा भत्ता जैसी सुविधाएं मिल सकें क्योंकि अनुबंधित कर्मचारी छुट्टिïयों के हकदार नहीं हैं.

एक ही कार्यस्थल पर ऐसी असमानता श्रम संकट को जन्म देने के लिए पर्याप्त है. अनुबंधित श्रम की समस्या में पुराने कानून ने और अधिक इजाफा कर दिया. इस कानून से कामगारों की मदद की उम्मीद की जाती है. अनुबंधित श्रम (विनियन एवं उत्सादन) अधिनियम, 1970 की धारा 10 के तहत कुछ खास परिस्थितियों में उनको रोजगार दिये जाने पर रोक है. यह सूची खासी लंबी और भ्रामक है और यहां तक कि देश के न्यायालयों को भी हाल में इन पर विरोधाभासी रुख दिखाना पड़ा है.

उदाहरण के लिए एक फैसले में कहा गया कि जब भी कोई नया पद सृजित हो तो अनुबंधित श्रमिकों को उसमें समाहित करने में प्राथमिकता देनी चाहिए. जबकि एक अन्य फैसले में कहा गया कि कंपनी ऐसी कोई गारंटी नहीं दे सकती है क्योंकि रोजगार की शर्तों में अनुबंध का पहले ही स्पष्टï उल्लेख होता है. व्यवहार में इस अधिनियम की व्याख्या सभी सेवाओं में नियमित प्रकृति वाले तथा फैक्टरी परिसर में अंजाम दिये जाने वाले अनु़बंधित श्रम को खत्म करने के तरीके के रूप में की जाती है लेकिन सब कुछ इतना सहज नहीं है.

मारुति सुजूकी इंडिया के चेयरमैन आर सी भार्गव ने कहा, 'हमने तालबंदी हटाने और 21 अगस्त से आंशिक तौर पर उत्पादन शुरू करने की योजना बनाई है. 19 जुलाई को संयंत्र में हुई हिंसा की घटना में संलिप्त पाए गए 500 से अधिक कर्मचारियों को बर्खास्तगी का नोटिस जारी किया गया है. अगर इस वारदात में अन्य कर्मचारियों की मिलीभगत उजागर होती है तो उन्हें भी नोटिस दिया जा सकता है.'

मारुति में मानेसर संयंत्र में 1528 स्थायी कर्मचारी हैं और करीब एक-तिहाई को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया है. कंपनी मंगलवार को भारी पुलिस सुरक्षा के बीच 300 कर्मचारियों के साथ उत्पादन शुरू करेगी और करीब 150 कारों के उत्पादन का अनुमान है. इस संयंत्र में मारुति स्विफ्ट और डिजायर कारों का उत्पादन करती है. इन मॉडलों की लंबित बुकिंग करीब 120,000 कारों की है. कंपनी यहां धीरे-धीरे उत्पादन बढ़ाएगी.

तालाबंदी से पहले मानेसर संयंत्र में रोजाना करीब 1600 कारों का उत्पादन किया जा रहा था.पिछले महीने तक प्लांट में करीब तीन हजार कर्मचारी काम कर रहे थे. इनमें से 1600 स्थायी कर्मचारी हैं. इनके अलावा प्रबंधन स्तर के 700 अधिकारी भी मानेसर प्लांट से जुड़े हुए हैं. सालाना साढ़े पांच लाख कारें बनाने वाले मारुति सुजुकी के इस प्लांट में स्विफ्ट, स्विफ्ट डिजायर, एसएक्स 4 और कार ए-स्टार का निर्माण होता है. पिछले साल भी इस प्लांट में श्रमिकों के साथ विवाद की तीन घटनाएं हुई थीं, जिसकी वजह से कंपनी को 2500 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा था.

उन्होंने बताया कि कर्मचारियों की सुरक्षा के संबंध में हरियाणा सरकार के साथ बातचीत की गई है और सरकार का सहयोग सराहनीय रहा है. उन्होंने बताया कि घर से लेकर संयंत्र तक और रास्ते में भी कर्मचारियों की सुरक्षा सुनिश्चित की गई है. इसके लिए हरियाणा पुलिस त्वरित कार्रवाई बल की तैनाती की जाएगी. इसके अलावा संयंत्र परिसर में एक सौ निजी सुरक्षाकर्मियों की तैनाती होगी. सुरक्षाकर्मी पूर्व सैन्यकर्मी होगें.

मानेसर प्लांट की सुरक्षा का जिम्मा फिलहाल हरियाणा पुलिस के हाथों में है. पिछले हफ्ते ही पुलिस अधिकारियों ने एलान किया था कि प्लांट की सुरक्षा व्यवस्था जारी रहेगी. इसके लिए प्लांट के भीतर करीब 500-600 पुलिसकर्मियों की एक पूरी बटालियन लगाई गई है. मुख्य परिचालन अधिकारी एमएम सिंह ने कहा, 'हिंसा की घटना में शामिल ठेके के कुछ श्रमिकों को भी जाने को कहा गया है. ठेके के कार्मिकों को हम गुडग़ांव संयंत्र में स्थायी तौर पर नियुक्त करने का विकल्प देंगे.'
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रविवार, 12 अगस्त 2012

photos of daman virodhi manch programe in allahaad..








photos of daman virodhi manch programe in allahabad..






प्यारे, साथियो. कल 10 अगस्त को सीमा आजाद-विश्वविजय की रिहाई की खुशी मे मैत्री जलपान घर B.H.U.मे एक टी पार्टी एवं संवाद गोष्ठी का आयोजन किया गया । भगत सिँह छात्र मोर्चा (B.C.M.) की तरफ आयोजित इस कार्यक्रम मे BHU के बहुत से छात्र व बुद्धिजीवियो ने भागीदारी की वक्ताओ ने सीमा एवं विश्वविजय की रिहाई को जनता के सँघर्षो का परिणाम बताया.

वक्ताओ के शब्दो मे-यह रिहाई एक छोटी सी जीत मात्र हैँ हमारा संघर्ष तब पक जारी रहेगा जब तक सभी काले कानून रद नही हो जाते .समस्त राजनितिक बन्दी रिहा नही हो जाते, एवं जनआन्दोलनो का दमन खत्म नही हो जाते । सभा का समापन जनगायक युदेश के गीतो से हुआ- SIMAA-VISHV VIJAY RIHAI MANCH

बुधवार, 8 अगस्त 2012

Seema Azad, Vishwavijay step out of Allahabad Jail


ALLAHABAD - Human rights activists and journalists Seema Azad and her husband, Vishwavijay, Tuesday stepped out of Allahabad's prison 30 months after they were arrested on February 6, 2010 on charges of being Maoist rebels.
"This was sudden and unexpected," a beaming Azad told her parents, siblings and friends of the decision of the Allahabad High Court a day earlier to grant them bail.

The duo had been convicted on June 8 of the charges and sentenced to life in prison. But the high court judges, Dharnidhar Jha and Ashokpal Singh, wrote that "no evidence of waging war against state was available", and granted them bail.

The family had waited for an hour outside the jail in the rain before Azad and Vishwavijay stepped out. She touched the feet of her parents who were both visibly quiet and smiling. As if on cue, the rain had stopped by then.
Azad and Vijay, wife and husband, were given life imprisonment each on June 8 by a sessions court here. The judge had found them guilty of being members of the Communist Party of India (Maoist). The couple denied the charge.

Police here had arrested the duo on February 6, 2010 as Azad returned from New Delhi where she was visiting An international book fair. Her husband, who had gone to fetch her from the railway station, too, was arrested.

They were charged under the Unlawful Activities Prevention Act. The prosecution claimed banned seditious literature had been found on the couple.

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

BMV NEWS Seema Vishwavijay Rihai Manch Dwara Julus

BCM


BCM

सोमवार, 6 अगस्त 2012

Bail comes as B'day gift for Seema a day later

Bail comes as B'day gift for Seema a day later



The Allahabad High Court has granted bail to journalist and civil right activist Seema Azad and her husband Vishvijay. The couple were convicted by a lower court on June 8, 2012, on charges of sedition. They were accused of having links with banned Maoist outfit and were held guilty for 'waging war against the nation'.

The bail was granted by a division bench comprising Justice Dharnidhar Jha and Justice Akhok Pal Singh the very next day of Seema's birthday on August 5. Counsel for the couple Ravi Kiran Jain argued before the court that there was no concrete evidence with the police which can prove that the couple were engaged in naxal activity. He also said that having Naxal literature to study for the purpose of journalist does not amount to any connection with Naxals. Jain also said that Azad and her husband had exposed illegal mining being carried out in Allahabad and adjoining areas by the mafia in connivance with the government officers and police. The couple was implicated in a false case for writing about illegal mining.



The Special Task Force (STF) of UP had arrested the couple in February 2010 and had claimed to have recover Maoist literature and large amount of cash from their possession. They were charged with having association with a banned organization, the Communist Party of India (Maoist). After arrest, the STF handed over to the Anti-Terrorism Squad (ATS) of UP making it a case involving 'terrorist activity'. In its charge sheet submitted in the court, the ATS claimed that the couple were involved in inciting people through CD, laptops and books. The court held the couple guilty and awarded them life term.

After detaining the couple, the police had then said that two activists were arrested at the Allahabad railway station. However, in the FIR lodged later at the Khuldabad police station, police showed that the couple were arrested by the STF from Khuldabad in Allahabad. The police had then also claimed that it found incriminating material which included a detailed programme of Krantikari Jan Committee, pamphlets carrying message of CPI (Maoist), a pamphlet related to the arrest of Kobad Gandhi, a pamphlet on arrest of Naxal and Maoist functionaries and members in Bihar, Jharkhand, Orissa and Chhattisgarh.



नोट: आगामी 9 अगस्‍त को गढ़रामपुर, देवरिया, उत्‍तर प्रदेश में रिहाई के उपलक्ष्‍य में रैली और आम सभा का आयोजन सीमा-विश्‍वविजय रिहाई मंच की ओर से किया जाएगा।

इसके बाद 11 अगस्‍त को सुबह 11 बजे से इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के छात्रसंघ भवन में राजकीय दमन और सीमा-विश्‍वविजय की बेशर्त रिहाई पर सम्‍मेलन होगा। वक्‍ता निम्‍न होंगे:

नीलाभ
आनन्‍द स्‍वरूप वर्मा
मनोज सिंह
संदीप पांडे और अन्‍य

आयोजक: दमन विरोधी मंच और अन्‍य संगठन

seema azad aur vishvavijay riha................

सीमा-विश्वविजय को जमानत

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सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी और उन पर और फर्जी मुकदमे थोपने की कार्यवाही तब हुई जब वे महत्वपूर्ण मानवाधिकार मुद्दों को उठा रही थी. सीमा आजाद और विश्वविजय की जमानत से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में उत्साह है....
जनज्वार. राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता सीमा आजाद और विश्वविजय को आज जमानत मिल गयी है. गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के एक जिला एवं सत्र न्यायालय ने 8 जून को सीमा आजाद और विश्वविजय को आजीवन कारावास के साथ-साथ 75-75 हजार रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुनायी थी. सीमा और विश्वविजय पति-पत्नी हैं.
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उत्तर प्रदेश की स्पेशल टास्क फोर्स के मुताबिक सीमा आज़ाद और विश्वविजय के पास माओवादी साहित्य मिला, जो प्रतिबंधित संस्था कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओ) से संबन्धित है। हालांकि उनको गिरफ्तार स्पेशल टास्क फोर्स उत्तर प्रदेश ने किया, पर बाद में उनका केस आतंकवाद विरोधी दस्ते को सौंप दिया गया.
सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी और उन पर और फर्जी मुकदमे थोपने की कार्यवाही तब हुई जब वे महत्वपूर्ण मानवाधिकार मुद्दों को उठा रही थी. सीमा आजाद और विश्वविजय की जमानत से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में उत्साह है.
गौरतलब है कि इससे पहले भी सीमा आज़ाद और विश्वविजय की जमानत अर्जी कई बार अदालत में आई इस नामंज़ूर की गयी थी. सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने कहा कि देर से ही सही, सीमा-विश्वविजय मामले में आये इस न्यायपूर्ण फैसले का हम स्वागत करते हैं.

शनिवार, 4 अगस्त 2012

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मीडिया

दलितों से क्यों मुंह फेरती मीडिया

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दलितों पर हमला और मीडिया की अनदेखी का सवाल बहुत पुराना है. अक्सर सामाजिक न्याय और मिशन की दुहाई देने वाली मीडिया दलित मुद्दों से भटकती रही है. दलितों से परहेज करती रही है. उनकी खबरों के प्रति नजर फेरती रही है...
संजय कुमार
मीडिया की जाति नहीं होती ? मीडिया पर सवर्ण होने का या फिर हिन्दूवादी होने का जो आरोप मढ़ा जाता रहा है वह चरितार्थ होते हुए अक्सर देखा जाता रहा है. हाल ही में, बिहार में दर्जनों दलितों व नरसंहारों के मास्टरमाइंड रहे सरकारी आंकड़ों में दर्ज प्रतिबंधित रणवीर सेना प्रमुख ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या के बाद उठे बवाल और बवाल से जुड़ी खबरों पर मीडिया का एक तरफा चेहरा या यों कहें कि उसके अंदर के जातिवाद को देखने का बेहतर अवसर मिला. मीडिया ने एक बार फिर साबित किया कि वह सवर्णों के साथ है दलित के साथ नहीं.
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जला छात्रावास : खबरों से रहा गायब फोटो- सरोज
ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या के बाद आरा के कतिरा स्थित अम्बेदकर छात्रावास में जो कोहराम मुखिया समर्थकों ने मचाया उसकी एक झलक भी सही ढंग से मीडिया में नहीं आयी. छात्रावास के दलित छात्रों के साथ मारपीट, प्रमाण पत्रों और अन्य समग्रियों को आग के हवाले करने की घटना को एक या दो लाइन में समेट दी गयी. जिला प्रशासन के नाक के नीचे दलित छात्रावासों पर हमले की खबर और सैकड़ों छात्रों को हास्टल से निकालकर बाहर कर दिया गया. 
यही नहीं एक दलित युवक संतोष रजक की हत्या भी कर दी गयी, यह भी खबर, खबर नहीं बनी. ऐसे में दलितों के प्रति मीडिया का यह व्यवहार बड़ा ही हास्यस्पद रहा! बिहार के किसी भी इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में ब्रहमेश्वर की हत्या और हंगामें की खबर के बीच दलितों से जुड़ी इन खबरों का जिक्र नहीं किया गया. (देख-हंस, जुलाई-2012 ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या के निहितार्थ-निखिल आनंद)
दलितों पर हमला और मीडिया की अनदेखी का सवाल बहुत पुराना है. अक्सर सामाजिक न्याय और मिशन की दुहाई देने वाली मीडिया दलित मुद्दों से भटकती रही है. दलितों से परहेज करती रही है. उनकी खबरों के प्रति नजर फेरती रही है. आरा के अम्बेदकर छात्रावास के ‘छात्र प्रधान’ विकास पासवान और छात्रावास के पूर्व छात्र डाक्टर बिंदू पासवान घटना पर, मीडिया के मुंह फेरने पर कहते हैं कि समझ में नहीं आता कि आखिर मीडिया हमारी खबरों को तरजीह क्यों नहीं देती? 
दलित छात्रावास पर  हमले की घटना के बाद उसकी खबरें मीडिया में नहीं के बराबर आयी. भुक्तभोगी छात्रों ने घटना और मुआवजे को लेकर जिला प्रषासन से गुहार लगायी. छात्रों के जले हुए सर्टिफिकेट और अन्य सामानों के बदले में मुआवजे की मांग की गई.  इन मुद्दों को खबर बनाकर मीडिया को दिया लेकिन खबर न छपी व न ही इलेक्ट्रानिक मीडिया पर दिखायी गयी. थक हार कर छात्रों ने आरा में धरना प्रदर्षन किया. यह खबर जगह तो पायी लेकिन ऐसे जैसे कोई अछूत हो ?
मीडिया की उपेक्षा से आहत दलित छात्रों ने आरा के मीडिया से सवाल भी दागे कि आखिर उनका गुनाह क्या है ? उनकी खबरों को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती है ? इस पर मीडिया की ओर से कोई जवाब नहीं मिला. विकास और बिंदू कहते हैं जवाब आखिर मिले तो कैसे, आरा की मीडिया पर सवर्णों का कब्जा जो बरकरार है. गैर-सवर्ण मीडिया हैं भी तो पता नहीं किस दबाव से खबर को प्राथमिकता नहीं देते? उन्होंने कहा कि दलित छात्रावास की घटना को सीडी में डालकर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को दिया गया लेकिन किसी ने भी जगह नहीं दी. सब ने मुंह फेर लिया. 
उन्होंने कहा कि राहत के लिए बारबार मांग कर रहे है लेकिन उनकी मांग को मीडिया नहीं उठा रही है. अगर हमारी मांग मीडिया उठाती है तो सरकार तक बात पहुंचेगी लेकिन यह सब नहीं हो रहा है. वहीं, मीडिया ब्रहमेश्वर हत्याकांड से जुड़ी पल पल की खबर घटना के बाद से रोजाना, अब तक दिये जा रही है. जबकि इस घटना से दलित भी प्रभावित हुए हैं, उनपर कोई नजर नहीं है.   राहत नहीं मिलने पर हमने बिहार के अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के अध्यक्ष विद्यानंद विकल को न्यौता दिया कि वे आये और अम्बेदकर छात्रावास को आग के हवाले करने के बाद जो हालात बनी  है उसका जायजा लें. 
दुर्भाग्य की बात यह है कि आयोग के अध्यक्ष को घटना के 40 दिन बाद फुर्सत मिली और वे वहां मुआयने के लिए आये. जहां घटना के विरोध में उनके मुंह पर कालिख पोत दिया गया. गाड़ी की लालबत्ती को तोड़ डाला गया. एसी/एसटी आयोग के अध्यक्ष के साथ हुई इस घटना को मीडिया ने खूब उछाला लेकिन घटना के पीछे अम्बेदकर छात्रावास पर फोकस नहीं किया. अध्यक्ष महोदय ने अपने साथ हुई घटना के पीछे राजनीति को जोड़कर मीडिया को अवगत कराने में पीछे नहीं रहे. लेकिन छात्रावास के हालात पर बात उभकर सामने नहीं आयी.
दलित के साथ यह कोई नयी बात नहीं है कि मीडिया ने मुंह फेर लिया हो और आरा की घटरा कोई छोटी घटना नहीं है. दलित छात्र जो शिक्षा का दामन थामकर मुख्यधारा में जुड़ना चाहते हैं उनके आशियाने को समाज के प्रबुद्ध जाति के लोगों ने उजाड़ दिया. घटना के पीछे जो आक्रोश है उसे एक तरह कर दिया जाया और घटना के साथ जुड़ी संवेदनाओं को देखा जाय तो मीडिया दलित छात्रावास के छात्रों के साथ हुई घटना को रेखांकित करने से पीछे रही.
बिहार की मीडिया में किसी अपराधी या किसी व्यक्ति की हत्या से जुड़ी खबर जगह पाती है तो मीडिया मृतक और उसकी परिवार पर लगातार कई दिनों तक संवेदनाओं से जोड़कर खबरों को शब्दों में पीरोकर इमोशनल ब्लैकमेल करने की जी तोड़ कोशिश करती है. तो वहीं, दलितों के मुद्दों पर मीडिया की खामोशी पल्ले नहीं पड़ती इसे क्या समझा जाय? मीडिया जाति के दायरे में है? मीडिया को जाति चलाती है ? कहने में परहेज नहीं है. आंकड़े बताते है, हालात बताते हैं, खबरें बताती हैं और खबरों के आगे पीछे की सच बयां करती हैं कि अखबारों  पन्नें/ टीवी के स्क्रीन दलितों के लिए नहीं है वह है तो सिर्फ सवर्णों के लिए.
sanjay-kumar संजय कुमार इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े हैं.

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ब्लाग

सत्ता का नशा

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जिस तरह शराब का नशा उतरने के साथ अनिद्रा, सिरदर्द, चिडचिडापन, थकान का उपहार दे जाता है, उसी प्रकार जब सत्ता का नशा उतरता है तो चिडचिडापन, डिप्रेशन, पागलपन जैसी बीमारी देकर जाता है, क्योंकि जो चमचा वर्ग स्वार्थ के लिए कुर्सी से चिपका रहता था, वह सत्ता के जाते ही दूर छिटक जाता है...
जय सिंह
समाज में कई प्रकार का नशा है. हर नशा अपने आप में बहुत खास होता है. ऐसा ही एक नशा है देश को सुधारने का नशा. आज हर कोई देश को सुधारने की बात करता है, जैसे वह देश सुधारने के लिए पैदा ही हुआ है. मगर खुद कोई सुधरने को तैयार नहीं है.
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काम करने का नशा- की इनके काम करने से ही देश चलेगा. खाकी वर्दी का नशा- यह खौफ पैदा करने के लिए जरूरी है. यह नशा जब चढ़ता है तो उतरता बड़ी मुश्किल से है, जब तक कि मोटी कमाई न कर ले या किसी को फर्जी रूप से फँसा न ले. धन कुबेर होने का नशा- जब यह नशा परवान चढ़ता है, तो फिर व्यक्ति ताजमहल और टाइटैनिक तक को खरीदने का ख्वाब देखने लगता है. जबकि सच्चाई है कि वह निस्वार्थ भाव से धन खर्च नहीं करना चाहता.
प्रेम का नशा- इस जूनून में न जाने कितने आशिक अपने आपको बर्बाद कर चुके हैं, न जाने कितनी सियासतें बदल गईं. समाज सेवा का नशा-जो दिल की गहराई से नहीं, बल्कि ज्यादातर लोगों द्वारा नाम चमकाने के लिए किया जाता है. दारू का नशा, भांग का नशा, चरस-अफीम का नशा, बीड़ी का नशा और न जाने इतने सारे नशों के बीच में सत्ता का नशा. ''सत्ता'' नाम में ही कुछ ऐसा है, जिसे सुनकर ही कुछ -कुछ होने लगता है, चाल में कड़क, आवाज में खनक आ जाती है और दिमाग में एक अलग तरह का सुरूर चढ़ने लगता है.
दुनिया का सबसे बड़ा नशा 'सत्ता' में होता है. इसके सामने सारे नशे फीके हैं. शराब का नशा पीने के बाद शुरू होता है. पीते ही नशा चढ़ने लगता है और आदमी आयं-बायं-सायं न जाने क्या-क्या बडबडाने लगता है. मगर कुछ देर के बाद नशा उतर जाने के बाद व्यक्ति को अपने द्वारा किये गये कृत्य याद ही नहीं रहता है. भाँग का नशा भी पीने के बाद ही शुरू होता है. ऐसे ही कई प्रकार के नशे पाउच या पुड़िया में मिलते हैं. हेरोइन हो या चरस. ये भी जब तक गले के नीचे नहीं जाती अपना असर नहीं दिखाती हैं. किन्तु ये सब सत्ता मद के आगे बेकार ही हैं. 'सत्ता का नशा' की बात ही कुछ निराली है. हवा में थोड़ी सी सत्ता की गंध आते ही अपना असर दिखाना शुरू कर देती है.
सत्ता आज का नया नशा नहीं है, प्राचीनकाल से चला आ रहा है. इतिहास गवाह है कि सत्ता के नशे ने न जाने कितने लोगों को बेमौत मौत के घाट उतार दिया. सत्ता को बनाये रखने के लिए ही समय-समय पर युद्ध होते रहे हैं. चाहे वह वाकयुद्ध ही क्यों न हो.
दूसरों को भूखा देखने का नशा अपने आप को बड़ा ही सुकून देता है. दूसरे की थाली की रोटी मुझे ही चाहिए, भले ही वो फेकनी ही क्यों न पड़े. ताकत का नशा भी बड़ा सुकून देने वाला होता है. छीनने में अपनी ताकत का एहसास होता है. सत्ता का नशा भी कुछ इसी तरह का है. जिसके पास सत्ता है, वह उसका प्रयोग (दुरुपयोग) करेगा ही. चाहे वह गलत करे या सही.
आजकल उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को भी सत्ता का कुछ ऐसा ही नशा चढ़ा है. वे अपनी पावर का उपयोग जिलों के नाम बदलने एवं फर्जी जाँच में कर रहे हैं. सत्ता के नशे में गलत निर्णय लेकर सरकार को भी बदनाम कर रहे हैं. अखिलेश जब सत्ता के बाहर थे तब न जाने कितने वादे किये जनता से, परन्तु वे सारे वादे अब झूठे साबित हो रहे हैं. बेरोजगारी भत्ता, लैपटॉप, रिक्शा न जाने कितने ऐसे वादे थे, जो सत्ता में आते ही उन्हें बेकार लगने लगे हैं. उनपर सत्ता का नशा इतना ज्यादा चढ़ गया है कि जनता से किये गए वादों को भुलाकर वे पार्कों, स्मारकों तथा चौराहों पर मूर्तियों की तोड़-फोड़ में लगे हुए हैं.
कुर्सी पर विराजमान लोग अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हैं. इसमें उन लोगों को बड़ी ही संतुष्टि मिलती है. जब सत्तासीन व्यक्ति सत्ताविहीन को दीन और निरीह हालात में देखता है तो उसे परम आनंद की प्राप्ति होती है.ऐसा नहीं है कि सत्ता का नशा उतरता नहीं. जैसे शराब का नशा उतरता है वैसे ही सत्ता का नशा भी उतरता है.
जिस तरह शराब का नशा उतरने के साथ अनिद्रा, सिरदर्द, चिडचिडापन, थकान का उपहार दे जाता है, उसी प्रकार जब सत्ता का नशा उतरता है तो चिडचिडापन, डिप्रेशन, पागलपन जैसी बीमारी देकर जाता है, क्योंकि जो चमचा वर्ग स्वार्थ के लिए कुर्सी से चिपका रहता था, वह सत्ता के जाते ही उनसे दूर छिटक जाता है. वह नये आने वाले की चमचागिरी शुरू कर देता है.
आज समाज में अनेक ऐसे नेता-अभिनेता, प्रशासनिक वर्ग के लोग मिल जायेंगे जब तक वे सत्ता में रहे, अपनों से कटे रहे, अब अपने उनसे कटे हुए हैं. इसलिए अच्छा है कि सत्ताधारी समय रहते स्वार्थी और चमचा टाईप के लोगों से दूर रहे, तभी सोच स्वस्थ रहेगी.तभी बनेगा उत्तम प्रदेश और देश.
jai-singhजय सिंह आधुनिक विप्लव पत्रिका में उपसंपादक हैं.
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साहित्य सिनेमा

'करबला' बंद न होती तो तमाशा होता

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धार्मिक विरोध से बंद हुई शूटिंग
'करबला' नाम से फिल्म बनाने का एलान क्या हुआ, विभिन्न शहरों से मुसलमान निकल पड़े उसका विरोध करने. यह सोचे बिना कि पहले यह जानकारी प्राप्त करें कि फिल्म के डायरेक्टर और प्रोडयूसर का इस प्रकार की फिल्म का एलान करने के पीछे मकसद क्या है.
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कई दिनों से फेसबुक और दूसरी सोशल मीडिया साइट्स पर चल रहा यह मामला आखिर सड़कों पर आ गया. कल और आज लखनऊ और कुछ दूसरे शहरों में फिल्म करबला बनाने वालों के खिलाफ प्रदर्शन किए गए और किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि तीन दिन पहले ही फिल्म के प्रोडयूसर डाक्टर नसीम और डायरेक्टर करीम शेख मुम्बई सीआईडी ब्रांच में जाकर लिखित रूप में यह दे चुके हैं कि वे इस फिल्म को बन्द कर रहे हैं.

लखनऊ में हुए प्रदर्शन में विख्यात कामेडी एक्टर कादर खान का इस फिल्म से नाम जुड़े होने के कारण उनके खिलाफ भी नारे लगाए गए. इस विषय में आरएनआई ने कादर खां से फोन पर बात की तो उन्होंने माना कि तीन दिन पहले फिल्म बन्द करने का फैसला लिया जा चुका है. उन्होंने कहा कि लोग हमसे पूछते हैं कि फिल्म में इमाम हुसैन (मौहम्मद साहब के पौत्र) का रोल कौन करेगा. क्या हम में इतनी हिम्मत है कि इमाम हुसैन या अहलेबैत (पैगम्बर मौहम्मद के घर के लोग) में से किसी का रोल करें. हममें तो इतनी भी हिम्मत नहीं कि जिन लोगों ने अपनी आंखों से इन पाक हस्तियों को देखा है, उनका रोल करें.

फिर फिल्म करबला बनाने के पीछे आपका आशय क्या था, के जवाब में कादर खान ने कहा कि आज के बच्चों को पता ही नहीं कि कुरबानी और शहादत क्या होती है. हमें लगा कि लोगों को कुरबानी और शहादत के मतलब पता होना चाहिए. कोई किसी को गोली मार दे तो कहते हैं कि शहीद हो गया. कोई गाड़ी के नीचे आ कर मर गया तो कहते हैं कि शहीद हो गया. क्या यह शहादत है? यदि कोई हक और इंसाफ के लिए खड़ा हो और उसे मार दिया जाए, यह शहादत होती है. हम करबला नाम की फिल्म में इस अंतर को दिखाना चाहते थे. कहीं पर भी इमाम हुसैन की उस अज़ीम कुरबानी और उनकी शहादत को दिखाने का विचार नहीं था.

अगर ऐसा है तो आप ने फिल्म बन्द क्यों कर दी, पर कादर खान ने बताया कि, हम controversy नहीं चाहते, हम दुनिया के सामने तमाशा क्यों बनें.

प्रश्न यह पैदा होता है कि यदि फिल्म से जुड़े व्यक्तियों की नीयत एक साफ सुथरी फिल्म के माध्यम से शहादत और कुरबानी के मतलब को पहचनवाना था तो फिर यह जाने बिना कि फिल्म की स्क्रिप्ट क्या है, लोगों ने उसके खिलाफ शोर मचाना क्यों प्रारंभ कर दिया.

इंटरनेट और सोशल मार्किटिंग एक्सपर्ट मोहम्मद सिब्तैन बताते हैं कि इससे यह पता चलता है कि सोशल मीडिया आज के समय में कितना प्रभावशाली हो गया है. सोशल मीडिया के माध्यम से प्रोपेगेंडा करने वालों और उससे अपने निजी स्वार्थ हासिल करने वालों से बच कर रहें. आने वाले समय में सोशल मीडिया और अधिक ताकतवर हो जाएगा.
आरएनआइ न्यूज़ नेटवर्क