शनिवार, 1 सितंबर 2012

साक्षात्कार मीडिया मुझे हार्डकोर माओवादी लिखता रहा - सीमा आजाद

मीडिया मुझे हार्डकोर माओवादी लिखता रहा - सीमा आजाद


विशेष बातचीत
मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय दो साल छह महीने बाद छह अगस्त 2012 को इलाहाबाद की नैनी जेल से जमानत पर छूटे हैं। माओवादी साहित्य रखने व माओवादियों की मदद करने के आरोप में वह राष्ट्रद्रोह का सामना कर रहे हैं। निचली अदालत से उन्हें आठ जून 2012 को आजीवन कारावास की सजा मिली थी। इसके विरोध में सामाजिक संगठन व उनके साथी आंदोलन कर रहे थे। दोनों को रिहा करने की मांग कर रहे थे। इसी बीच छह अगस्त 2012 को उच्च न्यायालय इलाहाबाद से उन्हें जमानत मिली। जेल में रहने के दौरान उन्हें किन दिक्कतों का सामना करना पड़ा, किस तरह की प्रताड़ना सहनी पड़ी, आगे की उनकी रणनीति क्या है, इन मसलों पर बातचीत के प्रमुख अंश :
सीमा आजाद से अटल तिवारी की बातचीत
seema-azad-pदो साल छह महीने जेल में रहने का अनुभव कैसा रहा?
इस दौरान अनेक अनुभव हुए। वह एक अलग दुनिया का हिस्सा है। शोषण, दमन, भ्रष्टाचार शक्तिशाली रूप में कायम है, जिसे करीब से देखने का मौका मिला।
जेल में किस तरह की प्रताड़ना से जूझना पडा?
पहले मानसिक रूप से काफी परेशान किया जाता था। मिलने आने वालों से हमारी मुलाकातें लोकल इंटेलीजेंस की मौजूदगी में कराई जाती थी। उन्हें डराया-धमकाया जाता था। पेशी के दौरान कचहरी में लोग आते थे तो एटीएस और पुलिस फोटो खींचने के बहाने उन्हें डराती कि आगे से तुम्हारा भी नम्बर लग सकता है। इनसे दूर ही रहो वही अच्छा है। यह कट्टर माओवादी हैं। अनेक बार तो लोगों को हमसे मिलने ही नहीं दिया जाता था। मेरे परिचितों व साथियों को फोन करके भी लोगों को धमकाया जाता था।
आपने जेल डायरी लिखी है, उसे किन बिन्दुओं पर फोकस किया है?
वैसे डायरी में तो अनेक बिन्दु शामिल किए हैं, लेकिन वहां रहने वाले बच्चों (छोटे बच्चे जो मां के साथ रहते हैं) पर विशेष फोकस किया है। बच्चों की कल्पनाशीलता बढ़ाने और उन्हें पढ़ाने-लिखाने का काम करना चाहिए। उत्तर प्रदेश में साक्षरता अभियान का हल्ला खूब है, लेकिन नैनी जेल में इसकी किरण अभी तक नहीं पहुंची है।
आने वाले समय में क्या आपकी डायरी पाठकों को पढ़ने को मिलेगी, यानी इसे प्रकाशित कराने की योजना क्या है?
देखिए...जेल में जितना समय मिलता था उसके हिसाब से हम डायरी लिखते थे। उसका कुछ हिस्सा अभी दो लेखों के रूप में दो पत्रिकाओं में छपा भी है। आगे की योजना उसे प्रकाशित कराने की है, जिसे पढ़कर लोग जेल के कड़वे सच से परिचित हो सकेंगे।
जेल में बंद महिलाओं की क्या स्थिति है, पुरुषों की तुलना में बेहतर है या बदतर?
जिस तरह भारतीय समाज में महिलाएं उपेक्षित हैं, उसी तरह जेल में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। जितनी सुधार की योजनाएँ हैं सब पुरुष जेल में लागू होती हैं। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, जन्मा’टमी के आयोजन वहीं होते हैं। योगा व प्रवचन समेत अन्य आयोजन भी पुरुष जेल में ही किए जाते हैं। महिलाओं में ज्यादातर को पता ही नहीं है कि वह किस अपराध में बंद हैं. उसमें कितने दिन में जमानत होनी चाहिए।
आंदोलन के साथी एवं सामाजिक संगठनों ने आपकी कहां तक मदद की?
गिरफ्तार किए गए लोगों को समर्थन की जरूरत होती है। शुरू में हमें इसकी कमी महसूस होती रही। बाद में धीरे-धीरे लोग मदद को आगे बढ़े। निचली अदालत से उम्रकैद की सजा होने के बाद साथियों ने माहौल बनाया और लोग हमारे पक्ष में एकजुट हुए। उसी का परिणाम है कि हमें ऊपरी अदालत से जमानत मिली, पर आगे से हमें एकजुट होना होगा। अगर किसी साथी की गिरफ्तारी हो तो बिना बिलंब के हम सभी को उसके साथ खड़े होना चाहिए। उसके परिवार के साथ खड़े हों, क्योंकि अनेक बार परिवार वाले यह समझने लगते हैं कि शायद यह लोग ऐसा काम करते हों। ऐसे में परिवार को पूरे मामले से अवगत कराना चाहिए। इस तरह का प्रयास करना चाहिए कि परिजन टूटे नहीं, बल्कि उसका साथ दें। इसके लिए हम सभी आंदोलनकारियों को ज्वाइंट फोरम बनाकर काम करने की जरूरत है।
जेल में बंदियों से की जाती है लूट : विश्वविजय
मानवाधिकार कार्यकर्ता विश्वविजय ने जेल के भ्रष्टाचार का बेबाकी के साथ खुलासा किया। उन्होंने कहा के जेल में बंदियों से हर महीने लाखों रुपए की वसूली होती है। काम नहीं करने वाले बंदियों से हर महीने 850 रुपए की वसूली की जाती है। साथ में 200 रुपए अलग से लिए जाते हैं। मनमाफिक बैरिक का एक हजार से लेकर दो हजार रुपया महीना देना पड़ता है। छोटी-छोटी गलतियों पर बंदियों की बैरिक व सर्किल का ट्रांसफर कर दिया जाता है। इसके बाद बदलने के लिए फिर पैसे की वसूली की जाती है। ड्रग्स, स्मैक, गांजा का धंधा खूब फल-फूल रहा है। जेल प्रशासन और सिपाही मिलकर यह काम बेधड़क करते-कराते हैं। खूब वसूली करते हैं। रही बात जेल के खाने की तो इसमें भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर हो रहा है। नियमानुसार एक भी दिन खाना नहीं दिया जाता है। आज जो लोग अपने हक की मांग करते हैं, उन्हें देशद्रोही बता दिया जाता है। उन्हें उम्रकैद हो सकती है। फांसी भी हो सकती है। एक-दो नहीं हमें लगता है कि इस देश के सारे कानून काले हैं। जेल में बंद तमाम लोगों के मामले फर्जी हैं। कट्टा-चाकू-बम पाए जाने के आरोप में बड़ी संख्या में गरीब युवक जेलों में बंद हैं।
जेल में रहने के दौरान आपका परिवार कितना प्रभावित रहा?
जितने दिन मैं और विश्वविजय जेल में रहे, उतने ही दिन परिवार पीछे चला गया। परिवार के लोग दूसरा काम नहीं कर सके। माता और पिता सारे काम छोड़ कर कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाते रहे।
जल-जंगल-जमीन के लिए लड़ने वालों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ राज्य ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है?
सरकारें अब जल-जंगल-जमीन हड़पने के लिए कानून बना रही हैं, जिससे प्रभावित होने वाले लोग कड़ा विरोध कर रहे हैं। उनका साथ सामाजिक कार्यकर्ता दे रहे हैं। ऐसे में राज्य के खिलाफ माहौल बन रहा है। उस पर काउंटर करने के लिए राज्य आक्रामक हो रहा है। इसके लिए किसी भी स्तर तक क्रूरता की हदें पार कर रहा और लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा रहा है।
आपको पकड़ने के बाद क्या तत्कालीन माया सरकार को केन्द्र से पैकेज मिला था?
जी हां..हमारी गिरफ्तारी के बाद मायावती सरकार ने राज्य में माओवाद फैलने की झूठी मनगढ़न्त कहानी गढ़ी, जिसके सफाया करने की बातें की जाने लगी। इसी झूठी कहानी के दम पर माओवाद का सफाया करने के लिए उसे आठ करोड़ रुपए केन्द्र सरकार से मिले थे।
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सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय
आप और विश्वविजय को माओवादी साहित्य रखने और माओवादियों की मदद करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया, वह कहां तक सच है?
हम दोनों दिल्ली में लगने वाले विश्व पुस्तक मेले से आ रहे थे। हमारे पास ढेर सारी किताबें थीं। एटीएस वालों ने हमें ट्रेन से उतार लिया फिर गिरफतारी में हमारे पास से माओवादी साहित्य दिखाया गया। पहली बात मेरे पास यह साहित्य पाया नहीं गया था और जो साहित्य उन्होंने दिखाया भी उसका उस समय कोई मतलब नहीं था। यानी वह आउटडेटेड था। उदाहरण के लिए-14वीं लोकसभा चुनाव के विरोध का पर्चा, लालगढ़ की जनता के नाम पर्चा, माओवादियों का पीएलए दिवस (दो दिसम्बर) का पर्चा दिखाया है। हम कहते हैं कि अगर साहित्य पढ़ने से आदमी की विचारधारा बदलती होती तो आज इतनी समस्याएं हमारे सामने नहीं होतीं। अपराध व भ्रष्टाचार इतने बड़े भयावह रूप में नहीं होता क्योंकि कम पढ़े-लिखे लोगों ने भी गांधी की आत्मकथा पढ़ी है और साहित्य पढ़ने से अगर लोग बदलते होते तो देश के अधिकतर लोग गांधीवादी हो जाते।
पहले की अपेक्षा राज्य में क्या बदलाव देखती हैं ?
पहले राज्य आम लोगों के लिए काम करता था। अब उसकी पहली प्राथमिकता में प्राकृतिक संसाधनों की लूट करने वाले कारपोरेट घराने हैं। इस बीच में रोड़ा बनने वालों को दबाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। एक तरह से राज्य पहले की अपेक्षा अधिक आक्रामक हुआ है।
उत्तर प्रदेश की पिछली बसपा सरकार में आपकी गिरफ्तारी के समय सपा नेताओं ने आपके पक्ष में बयान दिया था। उसके बारे में क्या कहेंगी ?
सरकार में आने के बाद सभी बदल जाते हैं। मौजूदा समाजवादी पार्टी की सरकार भी बदल गई तो इसमें अचरज नहीं है।
गिरफ्तारी से लेकर छूटने तक मीडिया की भूमिका किस तरह की रही?
मीडिया की भूमिका शुरू से नकारात्मक रही। मीडिया मुझे हार्डकोर माओवादी लिखता रहा। रिहाई के दिन भी इलाहाबाद में अधिकतर अखबारों ने सही रिपोर्टिंग नहीं की। एकाध को छोड़ लखनऊ के अखबारों ने तो सिंगल कालम खबर भी देना उचित नहीं समझा। एक तरह से अखबारों ने वही छापा जो एटीएस या पुलिस ने बताया। हां... ‘जनसत्ता’ व उसके पत्रकार अम्बरीश कुमार ने हमारा पूरा साथ दिया।
“दस्तक” पत्रिका क्या फिर शुरू करेंगी या केवल संगठन (पीयूसीएल) का काम और आंदोलनों में सहभागिता करेंगी?
पिछले दिनों मुम्बई के साथ लखनऊ और इलाहाबाद में कुछ अराजक तत्वों की ओर से दंगे भड़काने का प्रयास किया गया, जिसके खिलाफ इलाहाबाद में हुए प्रदर्शन में मैंने भागीदारी की। पीयूसीएल में प्रदेश संगठन सचिव की भी जिम्मेदारी है। “दस्तक” का पूरा सेटअप बिगड़ गया है। इसे फिर से निकालने की तैयारी है। उम्मीद है दो महीने में “दस्तक” का आप सभी के सामने होगी।
आंदोलन की बात चली है तो अन्ना हजारे व रामदेव के आंदोलन के बारे में आप क्या मानती हैं?
एक तरह से यह कारपोरेट घरानों (जिनका प्रतिनिधित्व अन्ना हजारे व रामदेव करते हैं) और सरकार के बीच की लड़ाई है। दोनों के अपने-अपने हित हैं, लेकिन मैं जनता के हर आंदोलन का समर्थन करती हूं।

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