मीडिया
दलितों से क्यों मुंह फेरती मीडिया
- 28 July 2012
दलितों
पर हमला और मीडिया की अनदेखी का सवाल बहुत पुराना है. अक्सर सामाजिक न्याय
और मिशन की दुहाई देने वाली मीडिया दलित मुद्दों से भटकती रही है. दलितों
से परहेज करती रही है. उनकी खबरों के प्रति नजर फेरती रही है...
संजय कुमार
मीडिया
की जाति नहीं होती ? मीडिया पर सवर्ण होने का या फिर हिन्दूवादी होने का
जो आरोप मढ़ा जाता रहा है वह चरितार्थ होते हुए अक्सर देखा जाता रहा है.
हाल ही में, बिहार में दर्जनों दलितों व नरसंहारों के मास्टरमाइंड रहे
सरकारी आंकड़ों में दर्ज प्रतिबंधित रणवीर सेना प्रमुख ब्रहमेश्वर मुखिया
की हत्या के बाद उठे बवाल और बवाल से जुड़ी खबरों पर मीडिया का एक तरफा
चेहरा या यों कहें कि उसके अंदर के जातिवाद को देखने का बेहतर अवसर मिला.
मीडिया ने एक बार फिर साबित किया कि वह सवर्णों के साथ है दलित के साथ
नहीं.
ब्रहमेश्वर
मुखिया की हत्या के बाद आरा के कतिरा स्थित अम्बेदकर छात्रावास में जो
कोहराम मुखिया समर्थकों ने मचाया उसकी एक झलक भी सही ढंग से मीडिया में
नहीं आयी. छात्रावास के दलित छात्रों के साथ मारपीट, प्रमाण पत्रों और अन्य
समग्रियों को आग के हवाले करने की घटना को एक या दो लाइन में समेट दी गयी.
जिला प्रशासन के नाक के नीचे दलित छात्रावासों पर हमले की खबर और सैकड़ों
छात्रों को हास्टल से निकालकर बाहर कर दिया गया.
यही
नहीं एक दलित युवक संतोष रजक की हत्या भी कर दी गयी, यह भी खबर, खबर नहीं
बनी. ऐसे में दलितों के प्रति मीडिया का यह व्यवहार बड़ा ही हास्यस्पद रहा!
बिहार के किसी भी इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में ब्रहमेश्वर की हत्या
और हंगामें की खबर के बीच दलितों से जुड़ी इन खबरों का जिक्र नहीं किया
गया. (देख-हंस, जुलाई-2012 ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या के निहितार्थ-निखिल
आनंद)
दलितों
पर हमला और मीडिया की अनदेखी का सवाल बहुत पुराना है. अक्सर सामाजिक न्याय
और मिशन की दुहाई देने वाली मीडिया दलित मुद्दों से भटकती रही है. दलितों
से परहेज करती रही है. उनकी खबरों के प्रति नजर फेरती रही है. आरा के
अम्बेदकर छात्रावास के ‘छात्र प्रधान’ विकास पासवान और छात्रावास के पूर्व
छात्र डाक्टर बिंदू पासवान घटना पर, मीडिया के मुंह फेरने पर कहते हैं कि
समझ में नहीं आता कि आखिर मीडिया हमारी खबरों को तरजीह क्यों नहीं देती?
दलित
छात्रावास पर हमले की घटना के बाद उसकी खबरें मीडिया में नहीं के बराबर
आयी. भुक्तभोगी छात्रों ने घटना और मुआवजे को लेकर जिला प्रषासन से गुहार
लगायी. छात्रों के जले हुए सर्टिफिकेट और अन्य सामानों के बदले में मुआवजे
की मांग की गई. इन मुद्दों को खबर बनाकर मीडिया को दिया लेकिन खबर न छपी व
न ही इलेक्ट्रानिक मीडिया पर दिखायी गयी. थक हार कर छात्रों ने आरा में
धरना प्रदर्षन किया. यह खबर जगह तो पायी लेकिन ऐसे जैसे कोई अछूत हो ?
मीडिया
की उपेक्षा से आहत दलित छात्रों ने आरा के मीडिया से सवाल भी दागे कि आखिर
उनका गुनाह क्या है ? उनकी खबरों को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती है ?
इस पर मीडिया की ओर से कोई जवाब नहीं मिला. विकास और बिंदू कहते हैं जवाब
आखिर मिले तो कैसे, आरा की मीडिया पर सवर्णों का कब्जा जो बरकरार है.
गैर-सवर्ण मीडिया हैं भी तो पता नहीं किस दबाव से खबर को प्राथमिकता नहीं
देते? उन्होंने कहा कि दलित छात्रावास की घटना को सीडी में डालकर प्रिंट और
इलेक्ट्रानिक मीडिया को दिया गया लेकिन किसी ने भी जगह नहीं दी. सब ने
मुंह फेर लिया.
उन्होंने
कहा कि राहत के लिए बारबार मांग कर रहे है लेकिन उनकी मांग को मीडिया नहीं
उठा रही है. अगर हमारी मांग मीडिया उठाती है तो सरकार तक बात पहुंचेगी
लेकिन यह सब नहीं हो रहा है. वहीं, मीडिया ब्रहमेश्वर हत्याकांड से जुड़ी
पल पल की खबर घटना के बाद से रोजाना, अब तक दिये जा रही है. जबकि इस घटना
से दलित भी प्रभावित हुए हैं, उनपर कोई नजर नहीं है. राहत नहीं मिलने पर
हमने बिहार के अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के अध्यक्ष विद्यानंद विकल को
न्यौता दिया कि वे आये और अम्बेदकर छात्रावास को आग के हवाले करने के बाद
जो हालात बनी है उसका जायजा लें.
दुर्भाग्य
की बात यह है कि आयोग के अध्यक्ष को घटना के 40 दिन बाद फुर्सत मिली और वे
वहां मुआयने के लिए आये. जहां घटना के विरोध में उनके मुंह पर कालिख पोत
दिया गया. गाड़ी की लालबत्ती को तोड़ डाला गया. एसी/एसटी आयोग के अध्यक्ष
के साथ हुई इस घटना को मीडिया ने खूब उछाला लेकिन घटना के पीछे अम्बेदकर
छात्रावास पर फोकस नहीं किया. अध्यक्ष महोदय ने अपने साथ हुई घटना के पीछे
राजनीति को जोड़कर मीडिया को अवगत कराने में पीछे नहीं रहे. लेकिन
छात्रावास के हालात पर बात उभकर सामने नहीं आयी.
दलित
के साथ यह कोई नयी बात नहीं है कि मीडिया ने मुंह फेर लिया हो और आरा की
घटरा कोई छोटी घटना नहीं है. दलित छात्र जो शिक्षा का दामन थामकर मुख्यधारा
में जुड़ना चाहते हैं उनके आशियाने को समाज के प्रबुद्ध जाति के लोगों ने
उजाड़ दिया. घटना के पीछे जो आक्रोश है उसे एक तरह कर दिया जाया और घटना के
साथ जुड़ी संवेदनाओं को देखा जाय तो मीडिया दलित छात्रावास के छात्रों के
साथ हुई घटना को रेखांकित करने से पीछे रही.
बिहार
की मीडिया में किसी अपराधी या किसी व्यक्ति की हत्या से जुड़ी खबर जगह
पाती है तो मीडिया मृतक और उसकी परिवार पर लगातार कई दिनों तक संवेदनाओं से
जोड़कर खबरों को शब्दों में पीरोकर इमोशनल ब्लैकमेल करने की जी तोड़ कोशिश
करती है. तो वहीं, दलितों के मुद्दों पर मीडिया की खामोशी पल्ले नहीं
पड़ती इसे क्या समझा जाय? मीडिया जाति के दायरे में है? मीडिया को जाति
चलाती है ? कहने में परहेज नहीं है. आंकड़े बताते है, हालात बताते हैं,
खबरें बताती हैं और खबरों के आगे पीछे की सच बयां करती हैं कि अखबारों
पन्नें/ टीवी के स्क्रीन दलितों के लिए नहीं है वह है तो सिर्फ सवर्णों के
लिए.
संजय कुमार इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े हैं.
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