शुक्रवार, 15 जुलाई 2011
आस्था के खजाने
मंदिरों को दान दिए जाने वाले धन में से कितना सफेद होता है और कितना काला, यह
कहना कठिन है। पिछले कुछ बरसों में बाबाओं और भगवानों की बाढ़ सी आ गई है
और उनके चेहरे टी. वी. चैनलों और अखबारों में अक्सर देखे जाने लगे हैं...
राम पुनियानी
ऐसा
लगता है कि हमारी इस फ़ानी दुनिया में सबसे अधिक धन उन लोगों के पास नहीं
है जो दिन-रात उसके पीछे दौड़ते रहते हैं। असली धन कुबेर तो वे हैं जो
मायामोह से ऊपर उठ चुके हैं, जिनके लिए धन-संपत्ति का कोई मोल नहीं है और जिनके जीवन का लक्ष्य, मात्र इश्वर की आराधना और समाजसेवा है। पुट्टपर्थी के भगवान सत्यसाईं बाबा न केवल 40,000 करोड़ रूपये से अधिक की संपत्ति के मालिक थे वरन् उनके शयनकक्ष में भी टनों सोना और नोटों के ढ़ेर थे।
देश के योग शिक्षकों’ के बेताज बादशाह और विदेशों में जमा कालेधन को देश में वापिस लाने के लिए अपनी जान तक न्यौछावर करने को तत्पर बाबा रामदेव, लगभग 1,100 करोड़ रूपये की संपत्ति के नियामक और नियंता हैं। यह तथ्य बाबा रामदेव द्वारा दिल्ली के रामलीला मैदान में किए गए “आमरण अनशन“ के बाद सामने आया। और यह तो दो उदाहरण मात्र हैं। कई अन्य बाबा, जिनमें श्री श्री रविशंकर मोरारी बापू, आसाराम बापू व मां अमृतानंदामाई शामिल हैं, भी करोड़ों-अरबों में खेल रहे हैं। कबीर, तुकाराम, नरसी मेहता और रैदास जैसे नीची जातियों के संतों के विपरीत, आज भगवानों के बाजार के सभी प्रमुख उत्पाद, भारी-भरकम संपत्ति के मालिक हैं।
आस्था के एक अन्य केन्द्र- मंदिर- भी अकूत संपदा के स्वामी हैं। यह सर्वज्ञात है कि तिरूपति के बालाजी, शिर्डी के साईंबाबा व मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिरों में सोने और नोटों के पहाड़ हैं। यह संपत्ति मुख्यतः भक्तों द्वारा दान दिए गए धन से इकट्ठा हुई है। हाल में कुछ भाजपा-शासित राज्यों, जैसे कर्नाटक में सरकारों ने भी मंदिरों को दान देना शुरू कर दिया है। कई भक्तजन यह दावा करते हैं कि इस संपत्ति का उपयोग जनहित के लिए किया जाता है। यह अर्धसत्य है। अभी हाल में, कुछ नास्तिकों ने यह हिसाब लगाया कि सत्यसाईं बाबा की संपत्ति का मात्र 0.5 प्रतिशत हिस्सा जनहित के कार्यों पर व्यय किया गया।
मंदिरों को दान दिए जाने वाले धन में से कितना सफेद होता है और कितना काला, यह कहना कठिन है। पिछले कुछ बरसों में बाबाओं और भगवानों की बाढ़ सी आ गई है और उनके चेहरे टी. वी. चैनलों और अखबारों में अक्सर देखे जाने लगे हैं। यही कारण है कि इन बाबाओं की संपत्ति आजकल चर्चा का विषय बन गई है।
बाबाओं और भगवानों की संपत्ति के खुलासे से लगे धक्के से देश उबरा भी नहीं था कि हाल में (जुलाई 2011) यह सामने आया कि तिरूअनंतपुरम् के पद्मनाभस्वामी मंदिर में अथाह संपत्ति छिपी हुई है। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर इस मंदिर के लाकर खोले गए। ऐसा प्रतीत होता है कि पद्मनाभस्वामी, धरती के सबसे धनी भगवान हैं। कई सदियों से इस मंदिर के तहखानों में लाखों करोड़ रूपयों की संपत्ति भरी हुई है। इस संपत्ति का कुछ हिस्सा भक्तों द्वारा दिए गए दान से आया था। खजाने को भरने में सबसे बड़ा योगदान त्रावणकोर के राजा मार्तण्ड वर्मा का था। और राजा मार्तण्ड वर्मा की आमदनी का स्रोत था गरीब किसानों से वसूला गया लगान, गुलामों के व्यापार पर लगाया गया कर और उन राजाओं की संपत्ति, जिनके राज्यों पर मार्तण्ड वर्मा ने विजय प्राप्त की थी। संपत्ति का स्रोत चाहे कुछ भी रहा हो परंतु आज इसका मालिक मंदिर का ट्रस्ट है। दिमाग को चकरा देने वाले इतने बड़े खजाने के सामने आने से यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि आखिर इस संपत्ति पर असली अधिकार किसका है।
मार्तण्ड वर्मा ने कई छोटे-छोटे राजाओं को कुचलकर और उनकी संपत्ति लूटकर यह खजाना इकट्ठा किया था। कहा जाता है कि एक ब्राहम्ण पुरोहित के प्रभाव में आकर उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति और अपनी तलवार पद्मनाभस्वामी मंदिर को समर्पित कर दी और स्वयं को पद्मनाभदास घोषित कर इस संपत्ति के संरक्षक बन गए। इस संपत्ति के कुछ हिस्से का इस्तेमाल ब्राहम्णों के लिए लंगर चलाने में किया गया। परंतु अधिकांश हिस्सा मंदिर के तहखानों में सुरक्षित रहा आया। इस मंदिर का प्रबंधन एक समिति के हाथ में है और खजाने के नियंत्रक हैं मार्तण्ड वर्मा के उत्तराधिकारी।
क्या किसी भगवान या देवता को इतनी संपत्ति की जरूरत हो सकती है? क्या संपत्ति के इस पहाड़ से समाज को कोई लाभ पहुंचा है? इसमें कोई संदेह नहीं कि इस संपत्ति का कुछ हिस्सा आध्यात्मिक उदेश्यों की पूर्ति के लिए खर्च किया जा रहा है परंतु क्या किसी व्यक्ति की भौतिक जरूरतें, उसकी आध्यात्मिक जरूरतों से कमतर होती हैं? कुछ हिन्दू संगठनों और कांग्रेस सहित कई पार्टियों के नेताओं ने यह मांग की है कि इस खजाने को जस का तस रहने दिया जाए।
स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में चुने हुए जनप्रतिनिधियों का शासन स्थापित हुआ। राजाओं- जो यह दावा करते थे कि उन्हें राज करने का दैवीय अधिकार है- के प्रीवीपर्स समाप्त कर दिए गए। इस परिपेक्ष्य में इस प्रश्न पर विचार किया जाना जरूरी है कि क्या इस संपत्ति के उपयोग का निर्धारण केवल कानूनी प्रावधानों की रोषनी में किया जाना चाहिए? या फिर पूरे समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए इसका इस्तेमाल होना चाहिए। भगवान किससे ज्यादा खुश होंगे? इस संपत्ति के चन्द लोगों की मुट्ठी में रहने से या इसके पूरे समाज की भलाई के काम में इस्तेमाल से?
यह मांग की जा रही है कि भारतीयों द्वारा विदेशों में जमा धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उसका इस्तेमाल समाज कल्याण के लिए किया जाए। क्या यही नीति बाबाओं और मंदिरों की संपत्ति के संबंध में भी नहीं अपनाई जानी चाहिए? जो लोग गला फाड़-फाड़ कर काले धन के राष्ट्रीयकरण की मांग कर रहे हैं-और इसमें कुछ गलत भी नहीं है-वे मंदिरों और बाबाओं की संपत्ति के बारे में चुप क्यों हैं? यह सचमुच एक पहेली है कि जो लोग काले धन के मुद्दे पर अनशन और आंदोलन करते रहते हैं, उनके होंठ तब क्यों सिल जाते हैं जब बात उस संपत्ति की आती है जो किसी बाबा या चन्द ट्रस्टियों के कब्जे में है।
मंदिर हमेशा से धन-संपदा के केन्द्र रहे हैं। कई राजाओं ने इस संपत्ति की खातिर मंदिरों को जमींदोज किया। महमूद गजनवी की नजर सोमनाथ मंदिर के विशाल खजाने पर थी परंतु उसने मंदिर पर हमला करने के लिए यह बहाना ढूढ़ा कि वहां बुतपरस्ती होती है, इस्लाम जिसकी इजाजत नहीं देता। इस और इसी तरह की अन्य ऐतिहासिक घटनाओं का इस्तेमाल, साम्प्रदायिक ताकतों ने समाज को विभाजित करने के लिए किया। तथ्य यह है कि हिन्दू राजा भी मंदिरों को लूटने में पीछे नहीं रहे। कल्हण की राजतरंगिनी में वर्णित है कि कश्मीर के 11वीं सदी के राजा हर्षदेव के दरबार में “देवोत्पतननायक“ नामक एक अधिकारी होता था जिसका काम था मंदिरों से कीमती मूर्तियों को उखाड़कर राजा के खजाने में पहुंचाना।
धार्मिक आस्था से जुड़े मुद्दे इन दिनों देश में छाए हुए हैं। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को सुलझाने से ज्यादा तरजीह मंदिरों के निर्माण को दी जा रही है। जहां आमजनों की आस्था का सम्मान किया जाना ज़रूरी है वहीं यह भी जरूरी है कि देश की संपत्ति का उपयोग जनहित में हो। पद्मनाभस्वामी मंदिर में दबे खजाने और इसी तरह की अन्य संपत्तियों को संपूर्ण समाज के नियंत्रण में लाया जाना आज की ज़रूरत है। इन खजानों की एक-एक पाई का इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन और कमजोर व दरिद्र लोगों के सशक्तिकरण के कार्यक्रम चलाए जाने पर किया जाना चाहिए। भगवान का काम बिना पैसों के चल जाएगा।
आस्था के एक अन्य केन्द्र- मंदिर- भी अकूत संपदा के स्वामी हैं। यह सर्वज्ञात है कि तिरूपति के बालाजी, शिर्डी के साईंबाबा व मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिरों में सोने और नोटों के पहाड़ हैं। यह संपत्ति मुख्यतः भक्तों द्वारा दान दिए गए धन से इकट्ठा हुई है। हाल में कुछ भाजपा-शासित राज्यों, जैसे कर्नाटक में सरकारों ने भी मंदिरों को दान देना शुरू कर दिया है। कई भक्तजन यह दावा करते हैं कि इस संपत्ति का उपयोग जनहित के लिए किया जाता है। यह अर्धसत्य है। अभी हाल में, कुछ नास्तिकों ने यह हिसाब लगाया कि सत्यसाईं बाबा की संपत्ति का मात्र 0.5 प्रतिशत हिस्सा जनहित के कार्यों पर व्यय किया गया।
मंदिरों को दान दिए जाने वाले धन में से कितना सफेद होता है और कितना काला, यह कहना कठिन है। पिछले कुछ बरसों में बाबाओं और भगवानों की बाढ़ सी आ गई है और उनके चेहरे टी. वी. चैनलों और अखबारों में अक्सर देखे जाने लगे हैं। यही कारण है कि इन बाबाओं की संपत्ति आजकल चर्चा का विषय बन गई है।
बाबाओं और भगवानों की संपत्ति के खुलासे से लगे धक्के से देश उबरा भी नहीं था कि हाल में (जुलाई 2011) यह सामने आया कि तिरूअनंतपुरम् के पद्मनाभस्वामी मंदिर में अथाह संपत्ति छिपी हुई है। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर इस मंदिर के लाकर खोले गए। ऐसा प्रतीत होता है कि पद्मनाभस्वामी, धरती के सबसे धनी भगवान हैं। कई सदियों से इस मंदिर के तहखानों में लाखों करोड़ रूपयों की संपत्ति भरी हुई है। इस संपत्ति का कुछ हिस्सा भक्तों द्वारा दिए गए दान से आया था। खजाने को भरने में सबसे बड़ा योगदान त्रावणकोर के राजा मार्तण्ड वर्मा का था। और राजा मार्तण्ड वर्मा की आमदनी का स्रोत था गरीब किसानों से वसूला गया लगान, गुलामों के व्यापार पर लगाया गया कर और उन राजाओं की संपत्ति, जिनके राज्यों पर मार्तण्ड वर्मा ने विजय प्राप्त की थी। संपत्ति का स्रोत चाहे कुछ भी रहा हो परंतु आज इसका मालिक मंदिर का ट्रस्ट है। दिमाग को चकरा देने वाले इतने बड़े खजाने के सामने आने से यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि आखिर इस संपत्ति पर असली अधिकार किसका है।
मार्तण्ड वर्मा ने कई छोटे-छोटे राजाओं को कुचलकर और उनकी संपत्ति लूटकर यह खजाना इकट्ठा किया था। कहा जाता है कि एक ब्राहम्ण पुरोहित के प्रभाव में आकर उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति और अपनी तलवार पद्मनाभस्वामी मंदिर को समर्पित कर दी और स्वयं को पद्मनाभदास घोषित कर इस संपत्ति के संरक्षक बन गए। इस संपत्ति के कुछ हिस्से का इस्तेमाल ब्राहम्णों के लिए लंगर चलाने में किया गया। परंतु अधिकांश हिस्सा मंदिर के तहखानों में सुरक्षित रहा आया। इस मंदिर का प्रबंधन एक समिति के हाथ में है और खजाने के नियंत्रक हैं मार्तण्ड वर्मा के उत्तराधिकारी।
क्या किसी भगवान या देवता को इतनी संपत्ति की जरूरत हो सकती है? क्या संपत्ति के इस पहाड़ से समाज को कोई लाभ पहुंचा है? इसमें कोई संदेह नहीं कि इस संपत्ति का कुछ हिस्सा आध्यात्मिक उदेश्यों की पूर्ति के लिए खर्च किया जा रहा है परंतु क्या किसी व्यक्ति की भौतिक जरूरतें, उसकी आध्यात्मिक जरूरतों से कमतर होती हैं? कुछ हिन्दू संगठनों और कांग्रेस सहित कई पार्टियों के नेताओं ने यह मांग की है कि इस खजाने को जस का तस रहने दिया जाए।
स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में चुने हुए जनप्रतिनिधियों का शासन स्थापित हुआ। राजाओं- जो यह दावा करते थे कि उन्हें राज करने का दैवीय अधिकार है- के प्रीवीपर्स समाप्त कर दिए गए। इस परिपेक्ष्य में इस प्रश्न पर विचार किया जाना जरूरी है कि क्या इस संपत्ति के उपयोग का निर्धारण केवल कानूनी प्रावधानों की रोषनी में किया जाना चाहिए? या फिर पूरे समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए इसका इस्तेमाल होना चाहिए। भगवान किससे ज्यादा खुश होंगे? इस संपत्ति के चन्द लोगों की मुट्ठी में रहने से या इसके पूरे समाज की भलाई के काम में इस्तेमाल से?
यह मांग की जा रही है कि भारतीयों द्वारा विदेशों में जमा धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उसका इस्तेमाल समाज कल्याण के लिए किया जाए। क्या यही नीति बाबाओं और मंदिरों की संपत्ति के संबंध में भी नहीं अपनाई जानी चाहिए? जो लोग गला फाड़-फाड़ कर काले धन के राष्ट्रीयकरण की मांग कर रहे हैं-और इसमें कुछ गलत भी नहीं है-वे मंदिरों और बाबाओं की संपत्ति के बारे में चुप क्यों हैं? यह सचमुच एक पहेली है कि जो लोग काले धन के मुद्दे पर अनशन और आंदोलन करते रहते हैं, उनके होंठ तब क्यों सिल जाते हैं जब बात उस संपत्ति की आती है जो किसी बाबा या चन्द ट्रस्टियों के कब्जे में है।
मंदिर हमेशा से धन-संपदा के केन्द्र रहे हैं। कई राजाओं ने इस संपत्ति की खातिर मंदिरों को जमींदोज किया। महमूद गजनवी की नजर सोमनाथ मंदिर के विशाल खजाने पर थी परंतु उसने मंदिर पर हमला करने के लिए यह बहाना ढूढ़ा कि वहां बुतपरस्ती होती है, इस्लाम जिसकी इजाजत नहीं देता। इस और इसी तरह की अन्य ऐतिहासिक घटनाओं का इस्तेमाल, साम्प्रदायिक ताकतों ने समाज को विभाजित करने के लिए किया। तथ्य यह है कि हिन्दू राजा भी मंदिरों को लूटने में पीछे नहीं रहे। कल्हण की राजतरंगिनी में वर्णित है कि कश्मीर के 11वीं सदी के राजा हर्षदेव के दरबार में “देवोत्पतननायक“ नामक एक अधिकारी होता था जिसका काम था मंदिरों से कीमती मूर्तियों को उखाड़कर राजा के खजाने में पहुंचाना।
धार्मिक आस्था से जुड़े मुद्दे इन दिनों देश में छाए हुए हैं। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को सुलझाने से ज्यादा तरजीह मंदिरों के निर्माण को दी जा रही है। जहां आमजनों की आस्था का सम्मान किया जाना ज़रूरी है वहीं यह भी जरूरी है कि देश की संपत्ति का उपयोग जनहित में हो। पद्मनाभस्वामी मंदिर में दबे खजाने और इसी तरह की अन्य संपत्तियों को संपूर्ण समाज के नियंत्रण में लाया जाना आज की ज़रूरत है। इन खजानों की एक-एक पाई का इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन और कमजोर व दरिद्र लोगों के सशक्तिकरण के कार्यक्रम चलाए जाने पर किया जाना चाहिए। भगवान का काम बिना पैसों के चल जाएगा।
पोवई
आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर राम पुनियानी वरिष्ठ स्तंभकार हैं. उनका यह
हिंदी लेख लोकसंघर्ष ब्लॉग से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.
बृहस्पतिवार, 14 जुलाई 2011
बुधवार, 13 जुलाई 2011
नीतीश की कृपा से जेल से बाहर आया रणवीर सेना का मुखिया
बिहार
में तीन सौ दलितों और पिछड़ों के नरसंहार के लिए जिम्मेदार रणवीर सेना
प्रमुख ब्रम्हेश्वर मुखिया को कल जहानाबाद की एक अदालत ने 22 में से 16
मामलों में बरी कर दिया और शेष में जमानत दे दी. 2002 में पटना से
गिरफ्तार हुआ मुखिया आरा जेल में बंद था, जहाँ रिहाई के समय उसका भव्य स्वागत किया गया...
नवल किशोर कुमार
ब्रम्हेश्वर मुखिया ने 1994से लेकर
2000तक जिन तीन सौ दलितों और पिछड़ों की हत्याओं को अंजाम दिलवाया
था,वह किसी एक आवेग में नहीं बल्कि रणवीर सेना का गठन करके 22 बार हमला
करके अंजाम दी गयी थीं.ब्रम्हेश्वर के इशारे पर दलितों और पिछड़ों की
बच्चियों के साथ बलात्कार किया गया। सैंकड़ों मासूमों का गर्दन एक झटके में
उड़ा दिया गया.रणवीर सेना का मास्टरमाइंड ब्रम्हेश्वर मुखिया खुलेआम कहता
था कि दलितों और पिछड़ों के बच्चों को मारकर उसने और उसके साथियों ने कोई
गलती नहीं की,आखिर बड़े होने पर वे नक्सली ही बनते।
महिलाओं का बलात्कार कर उन्हें
जान से मार देने वाले इस दरिंदे का कहना था कि ये महिलायें नक्सलियों को
जन्म देतीं,इसलिये इनका मारा जाना अनिवार्य है। सच कहा जाये तो आदमी के रुप
में यह जिंदा शैतान जेल की सलाखों से बाहर आ चुका है। अदालत ने इस दरिंदे
को 22में से 16मामलों में पहले ही बरी कर दिया था और पांच मामलों में इसे
जमानत मिल चुकी थी। कल इस दरिंदे को अदालत ने एक और मामले में जमानत दे
दी। इस प्रकार ब्रम्हेश्वर मुखिया को जेल से बाहर आने की अनुमति मिल गई।
ब्रम्हेश्वर मुखिया : नरसंहारों का मास्टरमाइंड |
ब्रहमेश्वर के खिलाफ़ सबूत नही
यह कानून का मजाक नहीं तो और क्या
है?जिस दरिंदे ने 300लोगों की हत्या कर दी और जिसने बाथे नरसंहार जैसी
निंदनीय घटनाओं को अंजाम दिया,उसके खिलाफ़ सरकार को कोई सबूत नहीं मिला।
कानून के कई जानकार यह बताते हैं कि सरकार ने अपनी ओर से ब्रहमेश्वर मुखिया
के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की। वर्ष 2006 से वह बिहार के विभिन्न जेलों
में सरकारी मेहमान के रुप में रह रहा था। दलितों और पिछड़ों का खून पीने
वाले इस खूनी भेड़िये को बिहार सरकार की ओर से वह हर सुविधा हासिल थी,जो एक
राजनीतिक कैदी को मिलता है। यानी बिहार सरकार की नजर में वह दलितों और
पिछड़ों का कातिल नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्यकर्ता था.
नीतीश ने निभाई वफ़ादारी
अपने मूल स्वभाव के अनुसार नीतीश कुमार
ने अपनी वफ़ादारी साबित करते हुए ब्रह्मेश्वर मुखिया के खिलाफ़ कोई सबूत न
पेशकर अपनी स्वामी भक्ति साबित कर दी। हालांकि यह दूसरा अवसर था, जब नीतीश
कुमार ने ब्रह्मेश्वर मुखिया और इनके खूनी सेना यानी रणवीर सेना अर्थात
भूमिहार सेना के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करते हुए जनवरी 2006में ही
अमीरदास आयोग को भंग कर दिया। अमीरदास आयोग का गठन तत्कालीन राजद सरकार ने
रणवीर सेना के कारनामों को जगजाहिर करने के लिये किया था। जस्टिस अमीरदास
भी मानते हैं कि उनकी ओर से सारी कार्रवाई पूरी हो चुकी थी,केवल रिपोर्ट
देना ही शेष रह गया था। लेकिन इससे पहले कि मौत के दरिंदे और इसकी खूनी
सेना का काला सच लोगों के सामने आ पाता, नीतीश कुमार ने उस आयोग को ही भंग
कर दिया।
ब्रम्हेश्वर मुखिया और रणवीर सेना का काला इतिहास
बिहार में ब्रहमेश्वर मुखिया ने वर्ष
1994के अंत रणवीर सेना यानि भूमिहार सेना का गठन किया था। इस सेना के गठन
का एकमात्र उद्देश्य था- दलितों और पिछड़ों की आवाज को कुंद करना। खूनी
दरिंदों की इस सेना ने दिनांक 29 अप्रैल 1995 को भोजपुर जिले के संदेश
प्रखंड के खोपिरा में पहली बार कहर बरपाया। इस दिन ब्रहमेश्वर मुखिया की
मौजूदगी में उसके इशारे पर रणवीर सेना के राक्षसों ने 5 दलितों की हत्या कर
दी। इसके बाद करीब 3 महीने बाद रणवीर सेना ने भोजपुर जिले के ही उदवंतनगर
प्रखंड सरथुआं गांव में दिनांक 25 जुलाई 1995 को 6 लोगों की गोली मारकर
हत्या कर दी।
इस घटना को अंजाम देने के ठीक 10
दिन बाद ही रणवीर सेना ने दिनांक 5 अगस्त 1995 को भोजपुर के बड़हरा प्रखंड
के नूरपुर गांव में हमला कर 6लोगों की हत्या कर दी। इस घटना को अंजाम देने
के बाद रणवीर सेना के दरिंदों ने गांव से 4महिलाओं का अपहरण कर लिया था
और सभी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार करने के बाद उनका कत्ल कर दिया
गया था। मारी गई इन महिलाओं में एक 13साल की बच्ची भी शामिल थी। पुलिसिया
रिकार्ड में यह आज भी दर्ज है कि इस बच्ची का बलात्कार किसी और ने
नहीं,बल्कि ब्रह्मेश्वर मुखिया ने ही की थी और अपना मुंह काला करने के बाद
इसी दरिंदे ने उसके जननांग में गोली मारकर उसकी हत्या कर दी थी।
दिनांक 7 फ़रवरी 1996 को रणवीर सेना के
दरिंदों ने एक बार फ़िर भोजपुर जिले के चरपोखरी प्रखंड के चांदी गांव में
हमला कर 4 लोगों की हत्या कर दी। इसके बाद दिनांक 9 मार्च 1996 को भोजपुर
के सहार प्रखंड के पतलपुरा में 3, दिनांक 22 अप्रैल 1996 को सहार प्रखंड के
ही नोनउर नामक गांव में रणवीर सेना ने 5लोगों की हत्या कर दी। सहार में
रणवीर सेना का खूनी तांडव रुका नहीं। दिनांक 5 मई 1996 को नाढी नामक गांव
में 3 लोगों की हत्या करने के बाद रणवीर सेना ने दिनांक 19 मई यानि ठीक
14वें दिन एकबार फ़िर नाढी गांव पर कहर बरपाया और 3 और लोगों की हत्या कर
दी। दिनांक 25 मई 1996 को रणवीर सेना ने उदवंतनगर के मोरथ नामक गांव में 3
लोगों की हत्या कर दी। यानी दिनांक 29 अप्रील 1995 से लेकर 25 मई 1996 तक
के बीच रणवीर सेना ने कुल 38 लोगों की हत्या कर दी।
इसके बाद दिनांक 11जुलाई 1996के दिन
पूरा बिहार कांप उठा था। वजह यह था कि आज के नीतीश कुमार के भगवान यानि
ब्रहमेश्वर मुखिया के नेतृत्व में रणवीर सेना ने भोजपुर जिले के सहार
प्रखंड के ही बथानी टोला नामक दलितों और पिछड़ों की बस्ती पर हमला बोलकर 21
लोगों की गर्दन रेतकर हत्या कर दी। इस घटना को अंजाम देने के बाद रणवीर
सेना ने दिनांक 25 नवंबर 1996 को सहार के पुरहारा में 4, दिनांक 12 दिसंबर
1996 को संदेश प्रखंड के खनेऊ में 5, दिनांक 24 दिसंबर 1996 को सहार के
एकवारी गांव में 6, और दिनांक 10 जनवरी 1997 को तरारी प्रखंड के बागर नामक
गांव में 3 लोगों की हत्या कर दी गई। इस प्रकार बिहार में मौत का नंगा नाच
नाचने वाले रणवीर सेना ने केवल भोजपुर जिले में कुल 77 लोगों की निर्मम
हत्या की थी।
वर्ष 1997 में रणवीर सेना ने भोजपुर
जिले के बाहर कदम रखा और 31 जनवरी 1997 को जहानाबाद के मखदूमपुर प्रखंड के
माछिल गांव में 4 दलितों की हत्या कर दी। इस घटना को अंजाम देने के बाद
रणवीर सेना का हौसला इस कदर बढा कि उसने पटना जिले के बिक्रम प्रखंड् के
हैबसपुर नामक गांव में 10 लोगों की हत्या कर दी। इस घटना को रणवीर सेना ने
दिनांक 26 मार्च 1997 को अंजाम दिया। इसके बाद दिनांक 28 मार्च 1997 को ही
जहानाबाद के अरवल प्रखंड(वर्तमान में अरवल जिला बन चुका है) के आकोपुर
में 3, भोजपुर के सहार प्रखंड के एकवारी गांव में दिनांक 10 अप्रैल 1997
को 9 और भोजपुर जिले के चरपोखरी प्रखंड के नगरी गांव में दिनांक 11 मई
1997 को 10 लोगों की हत्या रणवीर सेना ने कर दी।
निजी सेनाओं का बिहार : हत्याएं ही संघर्ष |
दिनांक 2 सितंबर 1997
को रणवीर सेना के दरिंदों ने जहानाबाद के करपी प्रखंड के खडासिन नामक गांव
में 8 और दिनांक 23 नवंबर 1997 को इसी प्रखंड के कटेसर नाला गांव में 6
लोगों की निर्मम हत्या कर दी गई। इसके बाद दिनांक 31 दिसंबर 1997 को
ब्रहमेश्वर मुखिया की उपस्थिति में रणवीर सेना ने जहानाबाद के
लक्ष्मणपुर-बाथे नामक गांव में एक साथ 59लोगों की निर्मम हत्या कर दी। यह
बिहार में हुए अबतक का सबसे बड़ा सामूहिक नरसंहार है। पाठकों को बता दें कि
इस नरसंहार के मामले में कुल 18लोगों को आजीवन उम्रकैद की सजा दी गई है।
जबकि मुख्य अभियुक्त ब्रहमेश्वर मुखिया को इस मामले में बरी कर दिया गया और
इसका श्रेय भी रणवीर सेना के दलाल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही जाता
है।
खैर,दिनांक 25 जुलाई 1998 को जहानाबाद के करपी प्रखंड के रामपुर गांव में एक बार फ़िर रणवीर के दरिंदों ने मौत का खेल खेला और 3 लोगों की जान ले ली। दिनांक 25 जनवरी 1999 को रणवीर सेना ने जहानाबाद में एक और बड़े नरसंहार को अंजाम दिया। जहानाबाद के अरवल प्रखंड के शंकरबिगहा नामक गांव में 23 लोगों की हत्या कर दी गई। इसके बाद दिनांक 10 फ़रवरी 1999 को जहानाबाद के नारायणपुर में 12, दिनांक 21 अप्रैल 1999 को गया जिले के बेलागंज प्रखंड के सिंदानी नामक गांव में 12, दिनांक 28 मार्च 2000 को भोजपुर के सोनबरसा में 3, नोखा प्रखंड के पंचपोखरी में 3 और दिनांक 16 जून 2000 को रणवीर सेना ने औरंगाबाद जिले के गोह प्रखंड के मियांपुर गांव में 33 लोगों की सामूहिक हत्या कर दी।
(नवल किशोर 'अपना बिहार' वेबसाइट के मॉडरेटर हैं. यह लेख वहीं से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)
Chhattisgarh : On the Supreme Court judgement terming appointment of SPOs as unconstitutional
July 12, 2011
Copy of the Supreme Court Judgement
PUDR responds to statement from CPI(Maoist)
The People’s Union for Democratic Rights (PUDR) welcomes the CPI (Maoist)’s statement following the landmark judgement of the Supreme Court on the Salwa Judum reassuring the SPOs’ that the Maoists don’t see them as enemies. The Maoists have extended their co-operation towards ensuring a smooth transition for the SPOs by undertaking the responsibility of rehabilitating them and ensuring their livelihood if they return to their villages, and break all connections with state forces. This statement is of significance for the following reasons.
1. It allays the hysteria being built up in the media about the retaliatory violence that will be wreaked by the Maoists following the disarming and disbanding of the SPOs.
2. It allays anxieties on the part of the SPOs concerning their safety and livelihood.
3. It alerts us to the possibility of the Chhattisgarh Government simply reconstituting the Koya commandos under another name.
The Maoists are thus attempting to repair the schism in the fabric of Adivasi society fostered by the state through the Salwa Judum .We hope that the State and Central governments will not in any way hinder this possibility and will indeed act on the SC judgement in both letter and spirit.
Paramjeet Singh, Harish Dhawan
(Secretaries, PUDR)
***************************************************************************
PUDR Statement on Supreme Court judgement
July 6, 2011
People’s Union for Democratic Rights welcomes the recent judgment delivered by the Supreme Court in which it has struck down as `unconstitutional’ the practice of arming local tribal youth as special police officers (SPOs) in order to fight the Maoists. It has asked the state government to:
* immediately stop using SPOs,
* recall all firearms distributed to them,
* desist from funding the recruitment of any other vigilante groups,
* ensure the filing of FIRs into criminal activities committed by them, and
* offer protection to those who need
The judgement was delivered by Justice B. Sudarshan Reddy and Justice Surinder Singh Nijjar on the writ petition filed by Nandini Sundar, Ramchandra Guha, EAS Sarma and others (Writ Petition (Civil) No (S). 250 of 2007).
PUDR welcomes the judgement as it offers a very powerful critique of what it describes as a `bleak and miasmic world view propounded by the respondents’. The Court indicts the state for claiming that anyone who `questions the conditions of inhumanity that are rampant in many parts of that state ought to necessarily be treated as Maoists, or their sympathizers’. The order condemns the respondents for reiterating the need for `constitutional sanction, under our Constitution, to perpetrate its policies of ruthless violence against the people of Chhattisgarh to establish a Constitutional order.’ The judgment dismisses the manufactured consent that has been created to build public opinion on the state of lawlessness prevailing in Chhattisgarh. Instead, it asserts that `the problem rests in the amoral political economy that the state endorses, and the resultant revolutionary politics that it spawns.’ The root cause of the problem of violence, the judgment says, lies in the `culture of unrestrained selfishness and greed spawned by neo-liberal economic ideology’ which promotes `policies of rapid exploitation of resources by private sector without creditable commitments to equitable distribution of benefits.’
As the judgment makes clear through its trenchant critique, the entire miasmic worldview —built on the premise that `economic growth is our only path and that the costs borne by the poor and deprived, disproportionately, are necessary costs’—violates fundamental rights enshrined in the Constitution, particularly Articles 14 and 21 (equality before law and dignity of life). In a bid to contain dissatisfaction, the policy of the state to distribute guns instead of books among poor tribal youth only points to the further degeneration and dehumanization of the environment, the judgment notes.
PUDR believes that the situation in Chhattisgarh was never a law and order problem and was deliberately made into one by the `mandarins of high policies’ in order to protect and pursue anti-people economic policies. PUDR reiterates its belief in the judgment and hopes that the current policy of creating armed vigilante groups such as the Salwa Judum or Koya Commandos will cease immediately. PUDR applauds the efforts of the petitioners who have painstakingly gathered facts and presented them before the court since 2007.
Paramjeet Singh and Harish Dhawan (Secretaries)
Copy of the Supreme Court Judgement
PUDR responds to statement from CPI(Maoist)
The People’s Union for Democratic Rights (PUDR) welcomes the CPI (Maoist)’s statement following the landmark judgement of the Supreme Court on the Salwa Judum reassuring the SPOs’ that the Maoists don’t see them as enemies. The Maoists have extended their co-operation towards ensuring a smooth transition for the SPOs by undertaking the responsibility of rehabilitating them and ensuring their livelihood if they return to their villages, and break all connections with state forces. This statement is of significance for the following reasons.
1. It allays the hysteria being built up in the media about the retaliatory violence that will be wreaked by the Maoists following the disarming and disbanding of the SPOs.
2. It allays anxieties on the part of the SPOs concerning their safety and livelihood.
3. It alerts us to the possibility of the Chhattisgarh Government simply reconstituting the Koya commandos under another name.
The Maoists are thus attempting to repair the schism in the fabric of Adivasi society fostered by the state through the Salwa Judum .We hope that the State and Central governments will not in any way hinder this possibility and will indeed act on the SC judgement in both letter and spirit.
Paramjeet Singh, Harish Dhawan
(Secretaries, PUDR)
***************************************************************************
PUDR Statement on Supreme Court judgement
July 6, 2011
People’s Union for Democratic Rights welcomes the recent judgment delivered by the Supreme Court in which it has struck down as `unconstitutional’ the practice of arming local tribal youth as special police officers (SPOs) in order to fight the Maoists. It has asked the state government to:
* immediately stop using SPOs,
* recall all firearms distributed to them,
* desist from funding the recruitment of any other vigilante groups,
* ensure the filing of FIRs into criminal activities committed by them, and
* offer protection to those who need
The judgement was delivered by Justice B. Sudarshan Reddy and Justice Surinder Singh Nijjar on the writ petition filed by Nandini Sundar, Ramchandra Guha, EAS Sarma and others (Writ Petition (Civil) No (S). 250 of 2007).
PUDR welcomes the judgement as it offers a very powerful critique of what it describes as a `bleak and miasmic world view propounded by the respondents’. The Court indicts the state for claiming that anyone who `questions the conditions of inhumanity that are rampant in many parts of that state ought to necessarily be treated as Maoists, or their sympathizers’. The order condemns the respondents for reiterating the need for `constitutional sanction, under our Constitution, to perpetrate its policies of ruthless violence against the people of Chhattisgarh to establish a Constitutional order.’ The judgment dismisses the manufactured consent that has been created to build public opinion on the state of lawlessness prevailing in Chhattisgarh. Instead, it asserts that `the problem rests in the amoral political economy that the state endorses, and the resultant revolutionary politics that it spawns.’ The root cause of the problem of violence, the judgment says, lies in the `culture of unrestrained selfishness and greed spawned by neo-liberal economic ideology’ which promotes `policies of rapid exploitation of resources by private sector without creditable commitments to equitable distribution of benefits.’
As the judgment makes clear through its trenchant critique, the entire miasmic worldview —built on the premise that `economic growth is our only path and that the costs borne by the poor and deprived, disproportionately, are necessary costs’—violates fundamental rights enshrined in the Constitution, particularly Articles 14 and 21 (equality before law and dignity of life). In a bid to contain dissatisfaction, the policy of the state to distribute guns instead of books among poor tribal youth only points to the further degeneration and dehumanization of the environment, the judgment notes.
PUDR believes that the situation in Chhattisgarh was never a law and order problem and was deliberately made into one by the `mandarins of high policies’ in order to protect and pursue anti-people economic policies. PUDR reiterates its belief in the judgment and hopes that the current policy of creating armed vigilante groups such as the Salwa Judum or Koya Commandos will cease immediately. PUDR applauds the efforts of the petitioners who have painstakingly gathered facts and presented them before the court since 2007.
Paramjeet Singh and Harish Dhawan (Secretaries)
शनिवार, 9 जुलाई 2011
Chhattisgarh : PUDR Statement on Supreme Court judgement terming appointment of SPOs as unconstitutional
July 6, 2011
Copy of the Supreme Court JudgementPeople’s Union for Democratic Rights welcomes the recent judgment delivered by the Supreme Court in which it has struck down as `unconstitutional’ the practice of arming local tribal youth as special police officers (SPOs) in order to fight the Maoists. It has asked the state government to:
* immediately stop using SPOs,
* recall all firearms distributed to them,
* desist from funding the recruitment of any other vigilante groups,
* ensure the filing of FIRs into criminal activities committed by them, and
* offer protection to those who need
The judgement was delivered by Justice B. Sudarshan Reddy and Justice Surinder Singh Nijjar on the writ petition filed by Nandini Sundar, Ramchandra Guha, EAS Sarma and others (Writ Petition (Civil) No (S). 250 of 2007).
PUDR welcomes the judgement as it offers a very powerful critique of what it describes as a `bleak and miasmic world view propounded by the respondents’. The Court indicts the state for claiming that anyone who `questions the conditions of inhumanity that are rampant in many parts of that state ought to necessarily be treated as Maoists, or their sympathizers’. The order condemns the respondents for reiterating the need for `constitutional sanction, under our Constitution, to perpetrate its policies of ruthless violence against the people of Chhattisgarh to establish a Constitutional order.’ The judgment dismisses the manufactured consent that has been created to build public opinion on the state of lawlessness prevailing in Chhattisgarh. Instead, it asserts that `the problem rests in the amoral political economy that the state endorses, and the resultant revolutionary politics that it spawns.’ The root cause of the problem of violence, the judgment says, lies in the `culture of unrestrained selfishness and greed spawned by neo-liberal economic ideology’ which promotes `policies of rapid exploitation of resources by private sector without creditable commitments to equitable distribution of benefits.’
As the judgment makes clear through its trenchant critique, the entire miasmic worldview —built on the premise that `economic growth is our only path and that the costs borne by the poor and deprived, disproportionately, are necessary costs’—violates fundamental rights enshrined in the Constitution, particularly Articles 14 and 21 (equality before law and dignity of life). In a bid to contain dissatisfaction, the policy of the state to distribute guns instead of books among poor tribal youth only points to the further degeneration and dehumanization of the environment, the judgment notes.
PUDR believes that the situation in Chhattisgarh was never a law and order problem and was deliberately made into one by the `mandarins of high policies’ in order to protect and pursue anti-people economic policies. PUDR reiterates its belief in the judgment and hopes that the current policy of creating armed vigilante groups such as the Salwa Judum or Koya Commandos will cease immediately. PUDR applauds the efforts of the petitioners who have painstakingly gathered facts and presented them before the court since 2007.
Paramjeet Singh and Harish Dhawan (Secretaries)
मंगलवार, 21 जून 2011
kobad gandhi a revolutionary
मिसाल हैं कोबाड गांधी
कोबाड
गाँधी की गिरफ्तारी से मध्यम वर्ग को नक्सल आन्दोलन और आतंकवाद के बीच का
अंतर नज़र आने लगा है.कोबाड और उनके जैसे लोगों की एक लम्बी फेहरिस्त है
जिन्होंने कारपोरेट जगत के किसी मालदार ओहदे से बेहतर गरीब आदिवासियों और
हाशिये पे जीने वाले लाखों लोगों की बेहतर ज़िन्दगी के लिए जीना मुनासिब
समझा. बता रहे हैं राहुल पंडिता
शीर्ष नक्सल नेता कोबाड गाँधी की गिरफ्तारी से नक्सल आन्दोलन को तगड़ा झटका लगा है.लेकिन साथ ही इस गिरफ्तारी ने कुछ हद तक वो काम किया जिसके लिए कोबाड दिल्ली और अन्य महानगरों का गुप्त दौरा करते रहते थे.शहरों तक नक्सल आन्दोलन को ले जाना और उसके प्रति मध्यम वर्ग में जागरूकता पैदा करना. लोग इस बात से खासे हैरान है कि मुंबई में आलीशान घर में रहने वाले एक बड़े परिवार का बेटा, जिसने दून स्कूल में संजय गाँधी के साथ पढाई कि, वो लन्दन से उच्च शिक्षा अधूरी छोड़कर गढ़चिरोली और बस्तर के जंगलों की ख़ाक भला क्यूँ छान रहा था? कोबाड की गिरफ्तारी ने वो काम किया जो शायद उनके द्वारा लिखे गए सेकडों लेख भी कर नहीं पाते. उनकी गिरफ्तारी से वो लोग जिनके लिए सीमा पार मारे गए आतंकवादी और बस्तर में मारे गए नक्सल के बीच कोई अंतर नहीं था, वो भी नक्सल आन्दोलन की चर्चा करने लगे है.
आज
नक्सल आन्दोलन नक्सलबाडी से कोसों आगे निकल गया है.आज १८० जिले -यानी करीब
एक-तिहाई भारत लाल झंडे की छाया के नीचे जी रहा है.इस ताकत के पीछे कोबाड
और उनके जैसे कई पड़े-लिखे लोगों का हाथ है जिन्होंने कारपोरेट जगत के किसी
मालदार ओहदे से बेहतर गरीब आदिवासियों और हाशिये पे जीने वाले लाखों लोगों
की बेहतर ज़िन्दगी के लिए अपना जीवन दांव पार लगा दिया.उन्होंने इसके लिए
जो मार्ग चुना इस पर बहस हो सकती है,लेकिन उनके समर्पण और बलिदान पर कोई
ऊँगली नहीं उठा सकता.
दिल्ली की
तीस हजारी अदालत में "भगत सिंह जिंदाबाद" के नारे लगाने वाला ये शख्स आखिर
कौन है? इसके लिए आपको नागपुर की इन्दोरा नाम की दलित बस्ती जाना होगा.
लन्दन से अपनी पढाई अधूरी छोड़ने के बाद कोबाड अनुराधा शानबाग नाम की एक
लड़की के संपर्क में आये.अनुराधा मुंबई के एक नामी-गिरामी कॉलेज की छात्रा
थी और उसके पिता मुंबई के बड़े वकील थे.समाजशास्त्र में एम्.फिल करते हुए
अनुराधा झुग्गी-झोंपडियों में काम करने लगी थी. कोबाड की मुलाकात उनसे वहीँ
हुई और १९७७ में शादी के बाद उन्होंने नागपुर में काम करना शुरू किया.
दरअसल
वो वक़्त ही कुछ ऐसा था.७० के दशक में पूरी दुनिया में क्रांति का बिगुल
बज रहा था.चीन में माओ सांस्कृतिक क्रांति लेकर आये थे. वियतनाम अमेरीकी
सेना को करारी टक्कर दे रहा था. भारत में नक्सलबाडी का बीज फूट चूका था.
सैकडों नौजवान अपना घर-बार छोड़कर क्रांति की आग में खुद को झोंक रहे
थे.१९८० में नक्सल गुट पीपुल्स वार ने अपने कुछ दल dandakaranya भेजे.ये
आंध्र प्रदेश,महाराष्ट्र,छत्तीसगढ़ और उडीसा में फैला वो जंगली इलाका है जो
इंडिया की तरक्की के बीच बहुत पीछे छूट गया.यहाँ के आदिवासियों तक नेहरु
की कोई भी पंच-वर्षीया योजना नहीं पहुंची.इसमें एक बड़ा इलाका ऐसा है जिसकी
आखिरी बार सुध लेने वाले शख्स का नाम जलालुदीन मोहम्मद अकबर था.यहाँ के
लोग इतने पिछडे थे कि उन्हें हल के इस्तेमाल के बारे में भी पता नहीं था.
ऐसे में नक्सल आन्दोलन से जुड़े मुट्ठी भर लोगों ने वहां काम शुरू किया. काम
बहुत मुश्किल था. लेकिन यहाँ प्रशसान के पूर्ण अभाव में लोग भुखमरी और
शोषण का शिकार हो रहे थे.नक्सलियों ने लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर करने के
प्रयास शुरू किये. धीरे-धीरे dandakaranya की सरकार वही चलाने लगे.
कोबाड
को पीपुल्स वार ने महाराष्ट्र में काम करने के लिए चुना.इस बीच अनुराधा ने
नागपुर विश्विद्यालय में पढाना शुरू किया.इन्दोरा बस्ती दलित आन्दोलन का
प्रमुख केंद्र है. यहाँ अनुराधा ने २ कमरे किराये पर लेकर रहना शुरू किया.
उसके मकान मालिक बताते है कि दोनों के पास किताबों के २ बक्सों और एक मटके
के अलावा कुछ भी नहीं था.अनुराधा एक टूटी-फूटी साइकिल चलाती. इन्दोरा बदनाम
बस्ती थी. वहां कोई भी ऑटो या टैक्सी चालक अन्दर आने से कतराता था. लेकिन
इस माहौल में अनुराधा आधी रात को काम खत्म करने के बाद सुनसान रास्तों पर
साइकिल चलते हुए घर आती. बस्ती में रहकर अनुराधा ने वहां के कई लड़कों की
जिंदगियां बदल दी. एक दलित लड़के ने मुझसे कहा कि उसकी ज़िन्दगी में अनुराधा
ने पूरी दुनिया की एक खिड़की खोल दी. सुरेन्द्र gadling नाम के एक लड़के को
अनुराधा ने वकालत की पढाई करने के लिए प्रेरित किया. आज वो नक्सल आन्दोलन
से जुड़े होने के आरोपियों के केस लड़ता है.
नब्बे
के दशक में अनुराधा पर भूमिगत होने का काफी दबाव बढ़ गया था.कोबाड पहले ही
भूमिगत हो चुके थे.१९९० के मध्य में अनुराधा बस्तर चली गयी.केंद्र सरकार जो
भी कहे लेकिन ये सच है की नक्सल कई जगहों पर सरकार की कमी को पूरा करते
है.छत्तीसगढ़ के बासागुडा गाँव में पानी के एक जोहड़ की घेराबंदी सरकार कई
साल तक आदिवासियों द्वारा हाथ-पाँव जोड़ने के बावजूद नहीं कर पायी.अनुराधा
की अगुवाई में कई गाँव के लोगों ने मिलकर ये काम अंजाम दिया.इसके लिए हर
काम करने वाले को प्रति दिन एक किलो चावल दिया गए.घेराबंदी के बाद घबराई
सरकार ने २० लाख रुपये देने की पेशकश की लेकिन उसे ठुकरा दिया गया.१९९८ तक
नक्सालियों ने ऐसे करीब २०० जोहडों का निर्माण किया.
लेकिन
जंगल की ज़िन्दगी काफी कठिन होती है.अनुराधा कई बार मलेरिया का शिकार बनी.
इसके चलते पिछले साल अप्रैल में उन्होने दम तोड़ दिया.तब तक कोबाड
माओवादियों के बड़े नेता बना दिए गए थे. वो खुद भी कैंसर और दिल की बीमारी
से ग्रस्त है. अब वो जेल की सलाखों के पीछे है लेकिन उन्होने एक पूरी पीढी
को प्रेरित किया. आज अरुण फरेरा जैसे कई पढ़े-लिखे नौजवान कोबाड और अनुराधा
से प्रेरित होकर आन्दोलन से जुड़े हैं. (अरुण भी अब जेल में है).
अब
से कुछ महीने बाद केंद्र सरकार दंडकारन्य में नक्सलियों का खात्मा करने के
लिए एक बहुत बड़ी फोर्स भेज रही है. गृह मंत्री प. चिदंबरम का कहना है की
नक्सली डाकू है और कुछ नहीं. लेकिन गरीब आदिवासियों के लिए वो किसी नायक से
कम नहीं. ये वो लोग है जो उनके लिए स्कूल चलते है, स्वस्थ्य सेवा मुहेया
कराते है, और उन्हें इज्ज़त से जीने का साहस देते है.नक्सली आन्दोलन से
जुड़े गरीब आदिवासियों के लिए इस से बढकर कुछ नहीं.भरपेट खाना और सरकारी
शोषण को दूर रखने के लिए एक बन्दूक.सरकार नाक्सालवाद का खात्मा करना चाहती
है, लेकिन क्या वो इन इलाकों में विकास ला पाएगी? भूख और गरीबी को समूल
नष्ट कर पाएगी? ये ऐसे कुछ सवाल है जिनका जवाब सरकार जितनी जल्दी खोजे उतना
बेहतर होगा.
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लेखक
अंग्रेजी पत्रिका ओपन के वरिष्ट विशेष संवाददाता हैं.नक्सल इलाकों से
रिपोर्टिंग पर आधारित उनकी पुस्तक इस साल के अंत में हार्पर कॉलिन्स
पब्लिशर्स द्वारा प्रकाशित हो रही है.
बुधवार, 27 अप्रैल 2011
the real anna hazare
April 26, 2011
by Analytical Monthly Review
In the last weeks we have had an illuminating example of how a thoroughly corrupt regime can manipulate a thoroughly pliable media. One can hope that in time we will see some careful academic examinations of how Anna Hazare was put to use by the Manmohan Singh/Chidambaram regime in late March and early April of 2011. It is too soon to speculate how long the Anna Hazare Scam will succeed in its goal of diverting outrage at the rising exposure of crimes at the highest level of government. With Anna Hazare on the scene, supposedly now all will be well. But already by the second week in April the “non-political Gandhian social activist” gives off a stench in the embrace of the blood-soaked Narendra Modi, and well-meaning persons momentarily caught up by the media frenzy may be experiencing a bit of disgust, or at least having some second thoughts.
Before the onset of the neoliberal regime in 1991, “anti-corruption” campaigns were a regular project of the business press. Typically such reporting would involve a hero from a merchants association, who had succeeded in trapping into a bribery case some sub-inspector from the State Excise Department or the Railway Protection Force, or some hapless underpaid official of the local Municipal Corporation. The steady drumbeat of such stories, combined with what everyone knew of the entrenched culture of real political corruption, contributed to the media campaign that accompanied the turn to neoliberalism. In this story, the obstacle to development was the “license raj” that opened up prospects for such “corruption.”
No sooner had the turn to “de-regulation” and “economic freedom” been set in motion by a government that featured Manmohan Singh as finance minister and Chidambaram as commerce minister, than we were given a startling glance at the real corruption waiting in the wings. The early days of the neoliberal turn was accompanied by a stock market boom. As we have since seen ad nauseum, the business press loudly celebrated with drums and bells the rise in share prices, a proof of success for the emerging neoliberal policies. Super-stockbroker Harshad Mehta was made into a media star, the “Big Bull”.
But quickly, as with every boom since, came the bust. By the summer of 1992 it became known that Harshad Mehta had engineered much of the rise in prices through fraud. The mechanism was simple enough. Agreements to sell and repurchase securities at a higher price after a period of time (“repos”), are among the leading options open to banks in their dealings with each other. At the time such dealings were done through broker intermediaries. The securities did not actually change hands, rather a “bank receipt” assured the purchasing (or lending) bank that the securities existed, and on its receipt the broker was furnished with the cash. Harshad Mehta found some banks willing to issue bank receipts on non-existent securities for payment of a fee. The cash was then invested in securities, and since prices were going up the “repurchase” was easily accomplished, leaving a growing sum of money in the hands of Harshad Mehta and his backers. When the scam was exposed and prices collapsed, among the victims was president of Vijaya Bank, who committed suicide. In this single scam, a harbinger of what was to come, surely more money was lost than in a decade or more of all the “license raj” sub-inspectors’ bribes put together.
It developed that among the investors in the Harshad Mehta group was none other than commerce minister Chidambaram, through an investment in the name of his wife. And it further developed that the shares had been acquired at a “promoters price”—a small fraction of the then market price. Chidambaram resigned in disgrace, but no CBI probe took place. When a petition for such a probe was presented, Chidambaram was successfully represented by lawyer Arun Jaitley, then BJP leader of the opposition in the Rajya Sabha. Between the Chidambarams and Jaitleys there has never been any political difference as to what really matters.
The Harshad Mehta Scam proved to be the model for the ensuing decades of neoliberal corruption. Indeed one year ago Shashi Tharoor was forced to resign in disgrace as minister of state for external affairs, having acquired shares at far below market prices in the name of a “friend”, exactly following the well established Chidambaram script down to the detail that no subsequent investigation was permitted to take place.
During these many years of successive and ever larger “free market” thefts and scams, the business press and the regime have worked out the Public Relations means of deflecting attention. As with Chidambaram, and most probably the equally arrogant U.S. trained Tharoor, the resignation at the height of the scandal will insure that it is short-lived, time will pass and the tainted figure can re-emerge to boast of the glories of the ever efficient “free market”—and the business press can be relied upon not to refresh the public’s memory.
A useful distraction from the first has been “anti-corruption” campaigns of the old style, aimed at the petty oppressors of small businessmen. A mere temporal coincidence in some sense, but not in others, the BVA (”People’s Movement against Corruption”) was launched in Maharashtra in 1991 by one Anna Hazare. A retired soldier, he had appeared in rural Maharashtra during Emergency and organised anti-alcohol vigilante groups, given to mob violence and the flogging of drinkers and drink sellers. This “non-political Gandhian” expanded his activities with NGO funding of a “model village”, promising “non-political” solutions to growing rural unrest. Following the time-tested script, the ”People’s Movement against Corruption” targeted such minor figures as sub-inspectors in the forest department, and proved skilled in its ability to gain press attention.
A relentless attention seeker, Hazare developed the tactic of announcing “fast unto death” that always seemed to end after a few days with press releases announcing a marvelous success. A 2003 “fast unto death” ended with the announcement of an investigation of his charges against local politicians in Maharashtra. A 2006 “fast unto death” against a proposed amendment to the Right to Information Act 2005, ended after some days with a press release when the amendment was modified.
In early 2011 the Manmohan Singh regime was reeling from the revelations of ever more immense corruption involving Union ministers—and the business press—on a scale never before seen. The 2G Scam, involving resigned Union communications minister Andimuthu Raja, is believed to have cost the nation tens of thousands of crores, or more! Hazare, who had not managed to catch the public eye for some time, announced his intention to “fast unto death” unless a bill was drawn to create some investigatory authority. But in the crush of other more interesting news, from Japan earthquake to Arab revolts to cricket matches, Hazare was largely ignored.
Then on March 17, The Hindu published an account of secret cable #162458 sent by the U.S. embassy to the U.S. State Department on July 17, 2008, days before the Lok Sabha vote of confidence on the nuclear deal. As we now all know, the U.S. embassy’s political counselor reported having been shown, by a political aide to Congress leader Satish Sharma, “two chests containing cash” that he was told was part of a fund of 50 to 60 crore Rs. that the party had put together to buy votes. Details of the vote buying scheme were set out in the cable, and evidently involved the entire regime, from the top down.
Even for the most gullible and trusting, a line had been crossed. Despite all desperate efforts coming from the regime, including a flat denial from Manmohan Singh himself, there is no credible reason why the U.S. embassy should mislead the State Department.
The verdict on the Manmohan Singh-Chidambaram regime is rendered. From its origin in the days of Harshad Mehta, through the ever increasing series of thefts and corruption up to the most recent and vast 2G scam, and now with proof of their successful corruption of what remains of Indian democracy, combined with proof of lickspittle servility to their U.S. masters, an honest future shall turn away from the memory of this crew in disgust.
But they still rule, and they still have the business press, and they still have vast amounts of money, and they still have the best Public Relations experts that can be rented on the “free market”.
And so we now have the Anna Hazare Scam. Between March 14th and March 22nd, 2011, a search in GoogleNews limited to Indian sources yields a total of three (3) articles that mention his name. On Wednesday, March 23rd, Anna Hazare announced that the Prime Minister’s Office had that very day called him. The Prime Minister’s Office said they would enter into negotiations with Hazare about the “Lokpal” bill, the “anti-corruption” legislation he was demanding on pain of yet another “fast unto death”. From March 24th through 31st a search on GoogleNews limited to Indian sources yields a total of four thousand two hundred and eighty-one (4,281) articles that mention his name. And then in April the final act played out in a non-stop media frenzy. The performance featured a few days of “fast unto death”, appeals from Sonia Gandhi and various Bollywood personalities, and then the regime “gives in” and agrees to form a commission and pass anti-corruption legislation, and so on.
So let us make one point as clearly as we can: the regime did not “give in” to mass pressure caused by the latest Anna Hazare “fast unto death”. No-one was paying any attention to this smug “Gandhian non-political” self-promoting voice of “civil society” and “fast unto death” publicity artist until the Prime Minister’s Office called him. The regime created the publicity storm in order to give into it.
It has been difficult to view the mass media during this period without gagging. But even the best of arranged scams eventually unwind, and this one is coming apart already. One cannot imagine that those well-meaning people who fell for the arranged media furor, Medha Patkar and Swami Agnivesh for two, are feeling very comfortable in the arms—one degree removed—of Narendra Modi.
So let us return to some basics. In the world of Manmohan Singh and Chidambaram and their U.S. masters, the only crimes are to be poor and—especially—to resist the rule of the rich. Everything is for sale in the “free market” and that includes: the votes of MPs, the mass media, Union ministers, “justice”, “democracy”, “civil society” and “Gandhian non-political social activists”. The Anna Hazare Scam worked for the moment precisely because there are still many decent people who want to believe that this system can, despite the overwhelming evidence, be reformed by commissions and legislation. Our advice? Wake up, face facts, and do not permit yourself to be manipulated by the Public Relations wizards of the PMO and the mass media. Things have gone far past reformation by commissions and legislation, the regime is rotten to the core.
In the last weeks we have had an illuminating example of how a thoroughly corrupt regime can manipulate a thoroughly pliable media. One can hope that in time we will see some careful academic examinations of how Anna Hazare was put to use by the Manmohan Singh/Chidambaram regime in late March and early April of 2011. It is too soon to speculate how long the Anna Hazare Scam will succeed in its goal of diverting outrage at the rising exposure of crimes at the highest level of government. With Anna Hazare on the scene, supposedly now all will be well. But already by the second week in April the “non-political Gandhian social activist” gives off a stench in the embrace of the blood-soaked Narendra Modi, and well-meaning persons momentarily caught up by the media frenzy may be experiencing a bit of disgust, or at least having some second thoughts.
Before the onset of the neoliberal regime in 1991, “anti-corruption” campaigns were a regular project of the business press. Typically such reporting would involve a hero from a merchants association, who had succeeded in trapping into a bribery case some sub-inspector from the State Excise Department or the Railway Protection Force, or some hapless underpaid official of the local Municipal Corporation. The steady drumbeat of such stories, combined with what everyone knew of the entrenched culture of real political corruption, contributed to the media campaign that accompanied the turn to neoliberalism. In this story, the obstacle to development was the “license raj” that opened up prospects for such “corruption.”
No sooner had the turn to “de-regulation” and “economic freedom” been set in motion by a government that featured Manmohan Singh as finance minister and Chidambaram as commerce minister, than we were given a startling glance at the real corruption waiting in the wings. The early days of the neoliberal turn was accompanied by a stock market boom. As we have since seen ad nauseum, the business press loudly celebrated with drums and bells the rise in share prices, a proof of success for the emerging neoliberal policies. Super-stockbroker Harshad Mehta was made into a media star, the “Big Bull”.
But quickly, as with every boom since, came the bust. By the summer of 1992 it became known that Harshad Mehta had engineered much of the rise in prices through fraud. The mechanism was simple enough. Agreements to sell and repurchase securities at a higher price after a period of time (“repos”), are among the leading options open to banks in their dealings with each other. At the time such dealings were done through broker intermediaries. The securities did not actually change hands, rather a “bank receipt” assured the purchasing (or lending) bank that the securities existed, and on its receipt the broker was furnished with the cash. Harshad Mehta found some banks willing to issue bank receipts on non-existent securities for payment of a fee. The cash was then invested in securities, and since prices were going up the “repurchase” was easily accomplished, leaving a growing sum of money in the hands of Harshad Mehta and his backers. When the scam was exposed and prices collapsed, among the victims was president of Vijaya Bank, who committed suicide. In this single scam, a harbinger of what was to come, surely more money was lost than in a decade or more of all the “license raj” sub-inspectors’ bribes put together.
It developed that among the investors in the Harshad Mehta group was none other than commerce minister Chidambaram, through an investment in the name of his wife. And it further developed that the shares had been acquired at a “promoters price”—a small fraction of the then market price. Chidambaram resigned in disgrace, but no CBI probe took place. When a petition for such a probe was presented, Chidambaram was successfully represented by lawyer Arun Jaitley, then BJP leader of the opposition in the Rajya Sabha. Between the Chidambarams and Jaitleys there has never been any political difference as to what really matters.
The Harshad Mehta Scam proved to be the model for the ensuing decades of neoliberal corruption. Indeed one year ago Shashi Tharoor was forced to resign in disgrace as minister of state for external affairs, having acquired shares at far below market prices in the name of a “friend”, exactly following the well established Chidambaram script down to the detail that no subsequent investigation was permitted to take place.
During these many years of successive and ever larger “free market” thefts and scams, the business press and the regime have worked out the Public Relations means of deflecting attention. As with Chidambaram, and most probably the equally arrogant U.S. trained Tharoor, the resignation at the height of the scandal will insure that it is short-lived, time will pass and the tainted figure can re-emerge to boast of the glories of the ever efficient “free market”—and the business press can be relied upon not to refresh the public’s memory.
A useful distraction from the first has been “anti-corruption” campaigns of the old style, aimed at the petty oppressors of small businessmen. A mere temporal coincidence in some sense, but not in others, the BVA (”People’s Movement against Corruption”) was launched in Maharashtra in 1991 by one Anna Hazare. A retired soldier, he had appeared in rural Maharashtra during Emergency and organised anti-alcohol vigilante groups, given to mob violence and the flogging of drinkers and drink sellers. This “non-political Gandhian” expanded his activities with NGO funding of a “model village”, promising “non-political” solutions to growing rural unrest. Following the time-tested script, the ”People’s Movement against Corruption” targeted such minor figures as sub-inspectors in the forest department, and proved skilled in its ability to gain press attention.
A relentless attention seeker, Hazare developed the tactic of announcing “fast unto death” that always seemed to end after a few days with press releases announcing a marvelous success. A 2003 “fast unto death” ended with the announcement of an investigation of his charges against local politicians in Maharashtra. A 2006 “fast unto death” against a proposed amendment to the Right to Information Act 2005, ended after some days with a press release when the amendment was modified.
In early 2011 the Manmohan Singh regime was reeling from the revelations of ever more immense corruption involving Union ministers—and the business press—on a scale never before seen. The 2G Scam, involving resigned Union communications minister Andimuthu Raja, is believed to have cost the nation tens of thousands of crores, or more! Hazare, who had not managed to catch the public eye for some time, announced his intention to “fast unto death” unless a bill was drawn to create some investigatory authority. But in the crush of other more interesting news, from Japan earthquake to Arab revolts to cricket matches, Hazare was largely ignored.
Then on March 17, The Hindu published an account of secret cable #162458 sent by the U.S. embassy to the U.S. State Department on July 17, 2008, days before the Lok Sabha vote of confidence on the nuclear deal. As we now all know, the U.S. embassy’s political counselor reported having been shown, by a political aide to Congress leader Satish Sharma, “two chests containing cash” that he was told was part of a fund of 50 to 60 crore Rs. that the party had put together to buy votes. Details of the vote buying scheme were set out in the cable, and evidently involved the entire regime, from the top down.
Even for the most gullible and trusting, a line had been crossed. Despite all desperate efforts coming from the regime, including a flat denial from Manmohan Singh himself, there is no credible reason why the U.S. embassy should mislead the State Department.
The verdict on the Manmohan Singh-Chidambaram regime is rendered. From its origin in the days of Harshad Mehta, through the ever increasing series of thefts and corruption up to the most recent and vast 2G scam, and now with proof of their successful corruption of what remains of Indian democracy, combined with proof of lickspittle servility to their U.S. masters, an honest future shall turn away from the memory of this crew in disgust.
But they still rule, and they still have the business press, and they still have vast amounts of money, and they still have the best Public Relations experts that can be rented on the “free market”.
And so we now have the Anna Hazare Scam. Between March 14th and March 22nd, 2011, a search in GoogleNews limited to Indian sources yields a total of three (3) articles that mention his name. On Wednesday, March 23rd, Anna Hazare announced that the Prime Minister’s Office had that very day called him. The Prime Minister’s Office said they would enter into negotiations with Hazare about the “Lokpal” bill, the “anti-corruption” legislation he was demanding on pain of yet another “fast unto death”. From March 24th through 31st a search on GoogleNews limited to Indian sources yields a total of four thousand two hundred and eighty-one (4,281) articles that mention his name. And then in April the final act played out in a non-stop media frenzy. The performance featured a few days of “fast unto death”, appeals from Sonia Gandhi and various Bollywood personalities, and then the regime “gives in” and agrees to form a commission and pass anti-corruption legislation, and so on.
So let us make one point as clearly as we can: the regime did not “give in” to mass pressure caused by the latest Anna Hazare “fast unto death”. No-one was paying any attention to this smug “Gandhian non-political” self-promoting voice of “civil society” and “fast unto death” publicity artist until the Prime Minister’s Office called him. The regime created the publicity storm in order to give into it.
It has been difficult to view the mass media during this period without gagging. But even the best of arranged scams eventually unwind, and this one is coming apart already. One cannot imagine that those well-meaning people who fell for the arranged media furor, Medha Patkar and Swami Agnivesh for two, are feeling very comfortable in the arms—one degree removed—of Narendra Modi.
So let us return to some basics. In the world of Manmohan Singh and Chidambaram and their U.S. masters, the only crimes are to be poor and—especially—to resist the rule of the rich. Everything is for sale in the “free market” and that includes: the votes of MPs, the mass media, Union ministers, “justice”, “democracy”, “civil society” and “Gandhian non-political social activists”. The Anna Hazare Scam worked for the moment precisely because there are still many decent people who want to believe that this system can, despite the overwhelming evidence, be reformed by commissions and legislation. Our advice? Wake up, face facts, and do not permit yourself to be manipulated by the Public Relations wizards of the PMO and the mass media. Things have gone far past reformation by commissions and legislation, the regime is rotten to the core.
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