संपत्ति विवाद को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश
- 29 July 2012
मोईनुद्दीन चिश्ती दरगाह विवाद
दरगाह से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष जुड़े लोगों के आपराधिक रिकार्ड खंगाले जाए तो वे सबसे पहले प्रतिबंधित किए जाएंगे. आप तो सिद्ध आत्मा के वंशज है. सज्जादनशीन, दरगाह दीवान इस्लामी शरीअत और सूफीवादी के मूल सिद्धांत के जानकार, आप कैसे महफिलों की सदारत करते है? संपदा की लड़ाइयों के लिए कोर्टों के चक्कर लगाते है और अपने साथ ब्लैक कमांडो लेकर चलते है...
भंवर मेघवंशी
कौमी एकता और सांप्रदायिक सौहार्द् की राजस्थान स्थित पवित्र स्थली ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह भी अब धार्मिक कट्टरवाद के लपेटे में आने लगी है. ख्वाजा साहब के वंशज दरगाह दीवान जैनुअल आबेदीन और खादिमों की आपसी खींचतान नित-नए रूप में सामने आ रही है. हालांकि यह सिर फुटव्वल दशकों से जारी है और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए किसी भी प्रकार का मुद्दा उठाकर बात का बतंगड़ बनाया जाता रहा है.
सूफीवाद के आधार उदारता, प्रेम और मस्ती हैं. उसी के चलते सूफीज्म फैला है और भारत के लिए एक मिसाल बना. मगर दरगाह पर वर्चस्व की जंग ने सूफीवाद की उदारता के पर कतरने शुरू कर दिए है अब ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के भी तालीबानीकरण की ओर कदम बढ़ने के संकेत मिल रहे है, संकीर्णता और धर्मांधता एवं कट्टरपन अपना बसेरा बना रहा है और दुःखद बात यह है कि उसे चिश्तिया सिलसिले के मोतबीर व जिम्मेदार लोग ही प्रश्रय दे रहे है.
हाल ही में दरगाह के सज्जादनशीन जैनुअल आबेदीन ने फिल्मी कलाकारों, निर्माताओं और निर्देशकों द्वारा फिल्मों और धारावाहिकों की सफलता के लिए ख्वाजा साहब के दरबार में मन्नत मांगने को इस्लामी शरीयत और सूफीइज्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ करार देते हुए ऐसे कृत्यों को नाकाबिले बर्दाश्त बताया. उन्होंने कहा कि ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर इस्लामिक विद्वानों और शरीअत के जानकारों की खामोशी चिंताजनक है, देश के प्रमुख उलेमाओं, दारुल उफ्ता और मुफ्तियों को इस मसले पर शरीअत के मुताबिक खुलकर अपनी राय का इजहार करना चाहिए जिससे मुसलमानों के इतने बड़े धर्मस्थल पर हो रहे गैर शरअी कार्यों पर अंकुश लग सके.
दरगाह दीवान का यह बयान कई प्रकार के संदेश देता है. इसके मूल में तो खादिमों से उनकी पुरानी अदावत ही है क्योंकि फिल्मी सितारे, निर्माता व निर्देशक अपने-अपने खादिमों के जरिए दरगाह की जियारत करते है. भेंट-पूजा करके लौट जाते है. वे दरगाह दीवान से मिलते तक नहीं हैं . अब भला ऐसे लोगों के आने से दीवान साहब को क्या फायदा? सो वे तो नाराज होंगे ही, मगर यह महज चढ़ावे या जियारत अथवा मेल मुलाकात की ही जंग रहती तो बेहतर था, क्योंकि इसे जिस भांति शरीयत से जोड़ते हुए देशभर के उलेमाओं, मुफ्तियों व दारुल उफ्ता को भड़काने की कोशिश की गई, वह चिंताजनक है.
दूसरा संदेश यह देने की भी कोशिश की गई है कि ख्वाजा साहब की दरगाह मुसलमानों का एक बड़ा धर्मस्थल है (तमाम भारतवासियों का नहीं!) यहां पर कुछ भी होगा, वह महज शरीअत के मुताबिक होगा, गैर इस्लामी कोई कृत्य नहीं किया जा सकेगा, तीसरा यह कि आईन्दा कोई कलाकार ख्वाजा के दरबार में नहीं पहुंचे, क्योंकि उनके कृत्य नाकाबिले बर्दाश्त हो सकते है.
वाकई यह भारत जैसे सर्वधर्म समभाव वाले मुल्क के लिए खतरे की घंटी है, परस्पर भाईचारा और कौमी एकता चाहने वाले लोगों के लिए अजमेर बहुत बड़ी उम्मीद का केंद्र है, जहां से सदैव भाईचारे, समन्वय, उदारता की आवाजें निकली है, कभी भी कट्टरता और तालिबानी इस्लाम को वहां से नहीं पनपाया गया मगर आज देखा जा रहा है कि दरगाह दीवान का बयान कट्टरता व अलगाव बढ़ाने में सहायक हो रहा है, इतना ही नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्षता के तमाम झंडाबरदार अजमेर शरीफ को केंद्र बनाकर अम्नोअमान का पैगाम पूरे मुल्क में पहुंचाते रहे है, मगर अब हालात गंभीर हो रहे है, संपत्ति की लड़ाई को उसूलों की लड़ाई में बदला जा रहा है. कला, कलाकार और कलाकृतियों को धर्मग्रंथों, हदीसों, स्मृतियों, पुराणों के तराजुओं पर तोला जा रहा है, कथित धार्मिक लोग अनापत्ति प्रमाण पत्र बांट रहे है कि कौन शरअी है और कौन गैर शरअी है.
दरगाह दीवान बता पाएंगे कि क्या समाधिपूजन शरअी काम है? मृत आत्माओं की मजारों, कब्रों को पूजना, उन्हें फूल पेश करना, उनके सम्मान में चादरा चढ़ाना शरअी काम है. दरगाह में नाचना गाना (गीत संगीत) शरअी है? आस्थावान जायरीनों की जेबें काट लेना, अंगूठियां उतार लेना, झाड़-फूंक और लच्छा बांधने के नाम पर पैसा ऐंठना शरीअत में जायज है? पूरी दरगाह को बाजार बना रखा है, जूते खोलने से लेकर रुमाल खरीदने, फूलों की टोकरी से लेकर दर्शन करने तक पैसे को ही भगवान माना जा रहा है, औरत जायरीनों के साथ किस तरह की ज्यादतियां हो रही है?
दरगाह से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष जुड़े लोगों के आपराधिक रिकार्ड खंगाले जाए तो संभवतः वे सबसे पहले प्रतिबंधित किए जाएंगे. आप तो ख्वाजा साहब जैसे युगपुरुष महान हस्ती और सिद्ध आत्मा के वंशज है, सज्जादनशीन, दरगाह दीवान इस्लामी शरीअत और सूफीवादी के मूल सिद्धांत के जानकार, आप कैसे महफिलों की सदारत करते है? संपदा की लड़ाइयों के लिए कोर्टों के चक्कर लगाते है और अपने साथ ब्लैक कमांडो लेकर चलते है, आपकी भाषा कैसी है?
आप कैसा देश बनाना चाहते है, फिल्म कलाकार तो प्रतिबंधित रहेंगे मगर भारत का दुश्मन दाउद और उसका परिवार मन्नतें मांगता रहेगा और अजमेर का शाही मेहमान होगा, हजारों-करोड़ रुपयों का घपला करने वाले राजनेता चादरें चढ़ाने आते है, आप उन्हें रोकते है? नहीं सिर्फ कला, कलाकार और कलाकृतियां आपको गैरशरअी लगती है, आप फरमाते है कि इस्लाम धर्म में नाच, गाने, चित्र, चलचित्र, अश्लीलता को हराम करार दिया गया है, फिर आप क्यों जगह-जगह पर फोटो खिंचवाते है, क्यों उर्स में महफिल होने देते है, क्यों आप ख्वाजा साहब की तस्वीरें बिकवा रहे है?
दीवान साहब, कट्टरता से कोई धर्म आज तक महान नहीं बना, रब तो पूरे आलम का है इसलिए उसे रब उल आलमीन कहा गया है उसे रब उल मुसलमीन मत बनाइए! हमने तो सदैव ख्वाजा साहब को संपूर्ण भारत के तमाम जाति, समुदायों, पंथों व धर्मों का महानतम संत माना, दरगाह शरीफ को संपूर्ण भारतीयों व विश्वभर के अकीदतमंदों की शरणस्थली! और आपने इसे महज मुस्लिम धर्मस्थल में बदल देने का काम कर दिया.
यह भारत जैसे विशिष्ट देश की कौमी एकता व सामुदायिक बंधुत्व की भावना में पलीता लगाने की शुरूआत है. इससे संकीर्णताएं बढ़ेगी, धर्मांधता ही फैलेगी, कलाकारों का क्या, वे यहां नहीं आएंगे तो कहीं ओर चले जाएंगे, मगर आप ऐसा करके ख्वाजा साहब के दरबार का तालीबानीकरण ही करेंगे, जिसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे. अपने अहंकारों व लोभ-लालच की लड़ाईयों में ख्वाजा मुइनुद्दीन जैसी हस्ती को तो मत घसीटिए.
भंवर मेघवंशी सामाजिक विषयों पर लिखते हैं.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें