सत्ता का नशा
- 04 August 2012
जिस
तरह शराब का नशा उतरने के साथ अनिद्रा, सिरदर्द, चिडचिडापन, थकान का उपहार
दे जाता है, उसी प्रकार जब सत्ता का नशा उतरता है तो चिडचिडापन, डिप्रेशन,
पागलपन जैसी बीमारी देकर जाता है, क्योंकि जो चमचा वर्ग स्वार्थ के लिए
कुर्सी से चिपका रहता था, वह सत्ता के जाते ही दूर छिटक जाता है...
जय सिंह
समाज में
कई प्रकार का नशा है. हर नशा अपने आप में बहुत खास होता है. ऐसा ही एक नशा
है देश को सुधारने का नशा. आज हर कोई देश को सुधारने की बात करता है, जैसे
वह देश सुधारने के लिए पैदा ही हुआ है. मगर खुद कोई सुधरने को तैयार नहीं
है.
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काम करने
का नशा- की इनके काम करने से ही देश चलेगा. खाकी वर्दी का नशा- यह खौफ पैदा
करने के लिए जरूरी है. यह नशा जब चढ़ता है तो उतरता बड़ी मुश्किल से है,
जब तक कि मोटी कमाई न कर ले या किसी को फर्जी रूप से फँसा न ले. धन कुबेर
होने का नशा- जब यह नशा परवान चढ़ता है, तो फिर व्यक्ति ताजमहल और टाइटैनिक
तक को खरीदने का ख्वाब देखने लगता है. जबकि सच्चाई है कि वह निस्वार्थ भाव
से धन खर्च नहीं करना चाहता.
प्रेम का
नशा- इस जूनून में न जाने कितने आशिक अपने आपको बर्बाद कर चुके हैं, न जाने
कितनी सियासतें बदल गईं. समाज सेवा का नशा-जो दिल की गहराई से नहीं, बल्कि
ज्यादातर लोगों द्वारा नाम चमकाने के लिए किया जाता है. दारू का नशा, भांग
का नशा, चरस-अफीम का नशा, बीड़ी का नशा और न जाने इतने सारे नशों के बीच
में सत्ता का नशा. ''सत्ता'' नाम में ही कुछ ऐसा है, जिसे सुनकर ही कुछ
-कुछ होने लगता है, चाल में कड़क, आवाज में खनक आ जाती है और दिमाग में एक
अलग तरह का सुरूर चढ़ने लगता है.
दुनिया का
सबसे बड़ा नशा 'सत्ता' में होता है. इसके सामने सारे नशे फीके हैं. शराब
का नशा पीने के बाद शुरू होता है. पीते ही नशा चढ़ने लगता है और आदमी
आयं-बायं-सायं न जाने क्या-क्या बडबडाने लगता है. मगर कुछ देर के बाद नशा
उतर जाने के बाद व्यक्ति को अपने द्वारा किये गये कृत्य याद ही नहीं रहता
है. भाँग का नशा भी पीने के बाद ही शुरू होता है. ऐसे ही कई प्रकार के नशे
पाउच या पुड़िया में मिलते हैं. हेरोइन हो या चरस. ये भी जब तक गले के नीचे
नहीं जाती अपना असर नहीं दिखाती हैं. किन्तु ये सब सत्ता मद के आगे बेकार
ही हैं. 'सत्ता का नशा' की बात ही कुछ निराली है. हवा में थोड़ी सी सत्ता
की गंध आते ही अपना असर दिखाना शुरू कर देती है.
सत्ता आज
का नया नशा नहीं है, प्राचीनकाल से चला आ रहा है. इतिहास गवाह है कि सत्ता
के नशे ने न जाने कितने लोगों को बेमौत मौत के घाट उतार दिया. सत्ता को
बनाये रखने के लिए ही समय-समय पर युद्ध होते रहे हैं. चाहे वह वाकयुद्ध ही
क्यों न हो.
दूसरों को
भूखा देखने का नशा अपने आप को बड़ा ही सुकून देता है. दूसरे की थाली की
रोटी मुझे ही चाहिए, भले ही वो फेकनी ही क्यों न पड़े. ताकत का नशा भी बड़ा
सुकून देने वाला होता है. छीनने में अपनी ताकत का एहसास होता है. सत्ता का
नशा भी कुछ इसी तरह का है. जिसके पास सत्ता है, वह उसका प्रयोग (दुरुपयोग)
करेगा ही. चाहे वह गलत करे या सही.
आजकल
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को भी सत्ता का कुछ ऐसा ही नशा चढ़ा है. वे
अपनी पावर का उपयोग जिलों के नाम बदलने एवं फर्जी जाँच में कर रहे हैं.
सत्ता के नशे में गलत निर्णय लेकर सरकार को भी बदनाम कर रहे हैं. अखिलेश जब
सत्ता के बाहर थे तब न जाने कितने वादे किये जनता से, परन्तु वे सारे वादे
अब झूठे साबित हो रहे हैं. बेरोजगारी भत्ता, लैपटॉप, रिक्शा न जाने कितने
ऐसे वादे थे, जो सत्ता में आते ही उन्हें बेकार लगने लगे हैं. उनपर सत्ता
का नशा इतना ज्यादा चढ़ गया है कि जनता से किये गए वादों को भुलाकर वे
पार्कों, स्मारकों तथा चौराहों पर मूर्तियों की तोड़-फोड़ में लगे हुए हैं.
कुर्सी पर
विराजमान लोग अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हैं. इसमें उन लोगों को बड़ी
ही संतुष्टि मिलती है. जब सत्तासीन व्यक्ति सत्ताविहीन को दीन और निरीह
हालात में देखता है तो उसे परम आनंद की प्राप्ति होती है.ऐसा नहीं है कि सत्ता का नशा उतरता नहीं. जैसे शराब का नशा उतरता है वैसे ही सत्ता का नशा भी उतरता है.
जिस तरह
शराब का नशा उतरने के साथ अनिद्रा, सिरदर्द, चिडचिडापन, थकान का उपहार दे
जाता है, उसी प्रकार जब सत्ता का नशा उतरता है तो चिडचिडापन, डिप्रेशन,
पागलपन जैसी बीमारी देकर जाता है, क्योंकि जो चमचा वर्ग स्वार्थ के लिए
कुर्सी से चिपका रहता था, वह सत्ता के जाते ही उनसे दूर छिटक जाता है. वह
नये आने वाले की चमचागिरी शुरू कर देता है.
आज समाज
में अनेक ऐसे नेता-अभिनेता, प्रशासनिक वर्ग के लोग मिल जायेंगे जब तक वे
सत्ता में रहे, अपनों से कटे रहे, अब अपने उनसे कटे हुए हैं. इसलिए अच्छा
है कि सत्ताधारी समय रहते स्वार्थी और चमचा टाईप के लोगों से दूर रहे, तभी
सोच स्वस्थ रहेगी.तभी बनेगा उत्तम प्रदेश और देश.
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